Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 585
________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ९/७ भाषा समिति और सत्यमें भेद-भाषा समिति वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के पुरुषों में हित और परिमित योग करे असाधु पुरुषों में श्री महाराज अहित और अमित भाषण करेगा तो राग के कारण उसको भाषासमिति नहीं बनेगी । लेकिन सत्य बोलनेवाला साधुओं में और उनके भक्तों में सत्य वचनका प्रयोग करेगा और ज्ञान, चारित्र आदिकी शिक्षा हेतु अमित (अधिक) वचनका भी प्रयोग करेगा अर्थात् भाषा समितिमें प्रवृत्ति करने वाला असाधु पुरुषों में भी वचनका प्रयोग करेगा लेकिन उसके बचन मित ही होंगे और सत्य बोलने वाला पुरुष साधु पुरुषों में ही वचनका प्रयोग करेगा लेकिन उसके वचन अमित भी हो सकते हैं। छह कायके जी की हिंसाका त्याग करना और छह इन्द्रियोंके विषयोंको छोड़ देना उत्तम संयम है । संयमके दो भेद है एक अपहृतसंज्ञक और दूसरा उपेक्षा संज्ञक । अपहृत संक्षक संयम के तीन भेद हैं— उत्तम मध्यम और जघन्य । जो मुनि प्राणियोंके समागम पर उस स्थान से दूर हट कर जीवोंकी रक्षा करता है उसके उत्कृष्ट संयम है। जो कोमल मारकी पीढ़ी से जीवों को दूर कर अपना काम करता है उसके मध्यम संयम है। और जो दूसरे साधनों से जीवोंका दूर करता है उसके जघन्य सेयम होता है। रागद्व ेष के त्यागका नाम उपेक्षा संज्ञक संयम है । उपार्जित कम के क्षय के लिये बारह प्रकारके तपोंका करना उत्तम तप है । ४८४ ज्ञान, श्राहार आदि चार प्रकार का दान देना उत्तम त्याग है । पर पदार्थों में यहाँ तक कि अपने शरीर में भी ममेदं या मोहका त्याग कर देना उत्तम आकिञ्चन्य है | इसके चार भेद हैं । १ अपने ओर परके जीवन के लोभका त्याग करना | २ अपने और परके आरोग्यके लोभका त्याग करना । ३ अपने और परके इन्द्रियोंके लोभ का त्याग करना । ४ अपने और परके उपभोग के लाभका त्याग करना । मन, वचन और कायसे स्त्री सेवनका त्याग कर देना ब्रह्मचर्य हैं। स्वेच्छाचार पूर्वक प्रवृत्ति को रोकने के लिये गुरुकुलमें निवास करनेकों भी ब्रह्मचर्य कहते हैं । विषय प्रवृत्तिको रोकने के लिये गुप्ति बतलाई है। जो गुमिमें असमर्थ है उसका प्रवृत्ति के उपाय बताने के लिये समिति बतलाई गई है। और समिति में प्रवृत्ति करने वाले मुनिको प्रमादके परिहारके लिये दश प्रकारका धर्म बतलाया गया है । अनुप्रेक्षाका वर्णन --- अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वा शुच्या सदसंबर निर्जरालोकबोधिदुर्लमधर्मस्वाख्यातत्वा चिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥ नित्य, अशरण, संसार, एकस्य, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बलभ और धर्म इनके स्वरूपका चिन्तन करता सो बारह अनुप्रेक्षायें हैं । अनित्यभावना - शरीर और इन्द्रियोंके विषय आदि सब पदार्थ इन्द्रधनुष और दुष्टजनकी मित्रता यादिकी भांति अनित्य हैं। लेकिन जीव अज्ञानता के कारण उनको नित्य समझ रहा है। संसार में जीवके निजी स्वरूप ज्ञान और दर्शनको छोड़कर और कोई वस्तु नित्य नहीं है इस प्रकार विचार करना अनित्यानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करने से जीव शरीर, पुत्र, कलन आदि में राग नहीं करता है, और वियोगका अवसर उपस्थित होनेपर भी दुःख नहीं करता है।

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