Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 595
________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार 1 ९४२१-२२ आभ्यन्तर तपोंके उत्तर भेद-- नवचतुर्दशपञ्चद्वि मेदा यथाक्रमम् ॥ २१ ॥ क्रमसे प्राथमिक नष, विधायक मामला सामायके पाँच और व्युत्सोके दो भेद होते हैं। प्रायश्चित्तके नव भेद-- आलोचनप्रतिक्रमणतदुमयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥२२॥ आलोपन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्था. पना-ये प्रायश्चित्त के नव भेद है। एकान्त में बैठे हुए, प्रसन्न; योष, देश और कालको जाननेवाले गुरुके सामने निष्कपट भावसे विनयसहित और भगवती आराधनामें बतलाये हुए दश प्रकार के दोषोंसे रहिस विधिसे अपने दोषों को प्रगट कर देना आलोचना है। आलोचनाके पश दोष इस प्रकार है-. गुरुमें अनुकम्पा उत्पन्न करके आलोचना करना आकम्पित दोष है । २ वचनोंसे अनुमान करके आलोचना करना अनुमानित दोष है। ३ लोगोंने जिस दोषको देख लिया हो उसीकी आलोचना करना इष्टदोष है। ४ मोटे या स्थूल दोषोंकी ही आलोचना करना बादरदोष है। ५ अस्प या सूक्ष्म दोष की ही आलोचना करना सूक्ष्म दोष है। ६ किसीके द्वारा उसके दोषको प्रकाशित किये जानेपर कहना कि जिस प्रकारका दोष इसने प्रकाशित किया है उसी प्रकारका दोष मेरा भी है। इस प्रकार गुप्त दोष की आलोचना करना प्रच्छन्न दोष है । ७ कोलाहलके बीचमें आलोचना करना जिससे गुरु ठीक तरह से न सुन सके सो शब्दाकुलिस दोष है। ८ बहुत लोगों के सामने आलोचना करना बहुजन दोष है। ५ दोषों को नहीं समझनेवाले गुरुके पास आलोचना करना अव्यक्तदोष है। १. ऐसे गुरुके पास उस दोषकी आलोचना करना जो दोष उस गुरुमें भी हो, यह तत्सेवी दोष है। __ यदि पुरुष आलोचना करे तो एक गुरु और एक शिष्य इस प्रकार दोके आश्रयसे आलोचना होती है। और यदि स्त्री आलोचना करे तो धन्द्र, सूर्य, दीपक आदिके प्रकाशमें एक गुरु और दो खियाँ अथवा दो गुरु और एक स्त्री इस प्रकार तीनके होनेपर मालोचना होती है । आलोचना नहीं करनेवालेको दुर्धरतप भी इच्छित फलदायक नहीं होता है। अपने दोषों को उच्चारण करके कहना कि मेरे वोष मिथ्या हो प्रतिक्रमण है । गुरुकी आज्ञासे प्रतिक्रमण शिष्य को ही करना चाहिये और बालोचनाको दकर आचायको प्रतिक्रमण करना चाहिये। शुद्ध होनेपर भी अशुद्ध होनेका संदेह या विपर्यय हो अथवा अशुद्ध होनेपर भी जहाँ शुद्धता का निश्चय हो वहाँ आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना चाहिये इसको तदुमय कहते हैं। जिस वस्तु के न खानेका नियम हो उस वस्तु के बर्तन या मुखमें आ जाने पर अथवा जिन वस्तुओंसे कषाय आदि उत्पन्न हो उन सब वस्तुओं का त्याग कर देना विवेक है । नियतकाल पर्यन्त शरीर, वचन और मनका त्याग कर देना व्युत्सर्ग है । उपवास आदि छह प्रकारका बाह्यतप तप प्रायश्चित है। विन, पक्ष, मास आदि दीक्षाका छेद कर देना छेद प्रायश्चित है । दिन. पक्ष, मास भादि नियत काल तक संघसे पृथक्कर देना परिहार है । महावतोंका मूलच्छेद करके पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित है।

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