Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 564
________________ ७।३६-३८] सातवाँ अध्याय प्रश्न-इती पुरुषकी सचित्ताहार आदिमें प्रवृत्ति फैसे हो सकती है ? उत्तर-मोह अथवा प्रमादके कारण बुमुक्षा और पिपासासे व्याकुल मनुष्य सचित्त आदिसे सहित अन्न, पान, लेपन, आच्छादन आदिमें प्रवृत्ति करता है। __ अतिथिसंविभागप्रतके अतिचारसचित निक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः ।। ३६ ।। सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिकम ये अतिथिसंविभागत्रतके पांच अतिचार हैं। सचित्त कदलीपत्र, पनपत्र आदिमें रखकर आहार देना सचित्तनिक्षेप है। सचित्त वस्तुसे ढके हुए आहारको देना सचिस्तापिधान है। अपनी असुविधाके कारण दूसरे दाताके द्वारा अपने द्रष्यका दान कराना परव्यपदेश है। अथवा यहाँ दूसरे अनेक दाता हैं मैं दाता नहीं हिसकार ओचा अन्यायालागस्यामहाहीजइस प्रकारका आहार दे सकते हैं मैं इस प्रकारसे या इस प्रकारका आहार नहीं दे सकता ऐसे विचारको परव्यपदेश कहते हैं। प्रश्न-परव्यपदेश अतिचार कैसे होता है ? उत्तर--धनादिलाभकी आकांक्षासे आहार देनेके समयमें भी व्यापारको न छोड़ सकनेके कारण योग्यता होने पर भी दूसरेसे दान दिलानेके कारण परव्यपदेश असिचार होता है। कहा भी है कि "अपने द्रव्यकं द्वारा दूसरोंसे धर्म करानेमें धनादिकी प्राप्ति तो होती है परन्तु यह अपने भोगके लिए नहीं | उसका भोक्ता दूसरा ही होता है।" "भोजन और भोजन शक्तिका होना, रतिशक्ति और स्त्रीकी प्राप्ति, विभष और दानशक्ति ये स्वय धर्म करने के फल हैं।" अनादरपूर्वक दान देना अथवा दूसरे दाताओंके गुणोंको सहन नहीं करना मात्सर्य है। आहारके समयको उल्लंघन कर अकालमें दान देना अथवा क्षुधित मुनिका अवसर टाल देना कालातिक्रम है। सल्लेखनाके अतिचारजीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥ ३७॥ जीयिनाशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये सल्लेखना अतके पाँच अतिचार हैं। सल्लेखना धारण करने पर भी जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसा है । रोगसे पीड़ित होनेपर बिना सल्लंशके मरनेकी इच्छा करना मरणाशंसा है। पूर्व में मित्रोंके साथ अनुभूत क्रीडा आदिका स्मरण करना मित्रानुराग है । पूर्वकालमें भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना सुखानुबन्ध है । मरने के बाद पर लोकमं विषयभोगोंकी आकांक्षा करना निदान है। दानका स्वरूप-- अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गों दानम् ॥ ३८ ॥ अपने और परके उपकार के लिये धन आदिका त्याग करना दान है। दान देनसे दाताको विशेष पुण्यबन्ध होता है और अतिथिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदिकी वृद्धि होती है । यही स्त्र और परका उपकार है।

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