Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 3
________________ प्राक्कथन दिगम्बर जैन परम्परामें आचार्य कुन्दकुन्दका स्थान सर्वोपरि है। उनके पश्चात् तत्वार्थ सूत्रकार आचार्य उमास्वामीका स्थान है । ये दोनों आचार्य जिनशासनके महान प्रभावक आचार्य थे। इनमेंसे प्रथमने समयसार, प्रवचनसार और पश्चास्तिकाय जैसे ग्रन्थोंकी रचना करके द्रव्यानुयोगरूपी दीपकको प्रज्वलित किया तो दूसरेने तत्त्वार्थमुत्रकी रचना करके 'गागरमें सागर की कहावत को चरितार्थ किया। जिनशासन में छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय, खाद्य तत्व और नौ पदार्थ प्रसिद्ध है। उक्त दोनों आचार्यनेि इन्हींका विवेचन उक्त ग्रन्थों में किया है। यद्यपि छ द्रव्योंमें पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थोंमें सात तस्य गति है फिर भी उनको रोका जो विशिष्ट कारण है वही ज्ञातव्य है | आचार्य कुन्दकुन्दने पचास्तिकाय में प्रायः सभोका विवेचन किया है किन्तु समयसारमें तो पदार्थोंका ही विवेचन किया है और उमास्वामीने तत्त्वार्थसूत्र के अध्यायोंमें सात तस्योंका विवेचन किया है। उन्होंने पुण्य और पापका अन्तर्भाव यासत्र और बन्धमें करके उन्हीं के अन्तर्गत उनका विवेचन किया है। किन्तु इन दोनों विवेचनोंमें जो अन्तर है वह उल्लेखनीय है । वह अन्तर सैद्धान्तिक नहीं है किन्तु एकमें सिद्धान्त शरीरका दियेन है तो दूसरे में उसकी आत्माका । यद्यपि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न है और उनमें से पहला हेय है और दूसरा उपादेय हैं। फिर भी जब तक संसार है तब तक शरीर के बिना आत्मा रहता नहीं है इसलिए शरीरको हेय माननेवाले आत्माधियों को भी शरीरको चिन्ता करना हो पड़ती है उसके विना आत्माका काम नहीं चलता । इसे ही सिद्धान्तकी आत्मा भी शरीरके बिना नहीं रहती, अतः उसकी मात्मा के अधियोंको वह शरीर भी अपेक्षणीय हो जाता है । भले ही मन्त में वह छूटनेवाला हो । समयसारका विवेचन सिद्धान्तको आत्माका विवेचन है और तस्वार्थ सूत्रका विवेचन उसके कलेवरका विवेचन है । जीवको गतियां, इन्द्रियों काय, योग आदि जीव नहीं हैं, यह बोध हमें समयसारसे प्राप्त होता है किन्तु संसारी जीव इनके साथ ऐसा हिल-मिल गया है कि उनके बिना हम उसे जान नहीं सकते, अतः उनके द्वारा संसारी जीवको विविध दशाओंका ज्ञान हमें तत्त्वार्थ सूत्र से होता है अतः मुमुक्षुके लिए दोनोंकी उपयोगिता निर्बाध है । इसीसे आचार्य कुन्दकुन्दके व्याख्याकार और उन्हें विस्मृतिके गर्भ से निकालकर प्रकाश में लानेवाले प्रवल किन्तु सन्तुलित आध्यात्मिक आचार्य अमृतचन्द्रने उमास्वाति तत्वार्थसूत्रको श्लोकबद्ध करके उसे लत्वार्थसार नाम दिया और इस तरह उसे समादुत किया । समयसारके रहस्यज्ञ होनेपर भी उन्होंने वत्त्वार्थसूत्रको उपेक्षणीय नहीं माना। यही उनकी रहस्मशताका प्रबल प्रमाण हूँ ।

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