Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 193
________________ १८० तमसो मा ज्योतिर्गमय क्षण पहले भी मार सकते हैं, न कोई किसी को मार सकता है, न जिला सकता है । सब अपने-अपने आयुष्यकर्म के अनुसार मरते या जीते हैं । आप पूछेगे, तब फिर हिंसा-अहिंसा की बात मारने न मारने के साथ कैसे संगत हो सकती है ? जब किसी को जिलाना या बचाना हमारी सामर्थ्य से बाहर है, तब फिर किसी की दया या करुणा की प्रेरणा भी व्यर्थ है और जब मारना किसी के हाथ की बात नहीं, तब किसी की हिंसा भी कैसे होगी ? इनका समाधान क्रमशः इस प्रकार है-आत्मा अविनाशी है, तभी तो हिंसा लगती है । अगर आत्मा अनात्मा बन जाता, तब तो हिंसा किसे लगती ? मारने वाले का आत्मा नष्ट हो गया और मरने वाले का भी आत्मा समाप्त हो गया, फिर तो हिंसा-अहिंसा का कोई सवाल ही न रहता। आत्मा अजर अमर अविनाशी है, इसीलिए तो बचाने वाले को अहिंसा (धर्म) और मारने वाले को हिंसा (पाप) होती है । आत्मा तो अजर, अमर, अविनाशो है, किन्तु प्राण तो अविनाशी नहीं हैं, वे तो समाप्त होते हैं। यद्यपि वे शरीर से सम्बन्धित हैं, किन्तु आत्मा ने आसक्तिवश अपने मान रखे हैं। शरीर और प्राण के साथ आत्मा ममत्व से बंधा हुआ है । इसलिए ही प्राणों का वियोग, उक्त आत्मा को असह्य हो उठता है, प्राणों का हरण करने वाला रागद्वेषादि वश करता है, इसलिए वहाँ हिंसा हो जाती है। दूसरी बात यह है कि आत्मा के पास आयुष्यरूप प्राण है, जो १० प्राणों में अन्तिम प्राण है । आयुष्यप्राण पर भी प्राणी की ममता है। उसे अकाल में ही अलग कर देना-यानी आत्मा का प्राणों से पृथक कर देना हिंसा कहलाती है। जो आयुष्य अधिक समय तक चल सकता था, उसे शीघ्र ही रागद्वषादिवश समाप्त कर देना ही तो हिंसा है। जैसे किसी दीपक में ८ घंटे तक तेल चल सकता है, किसी ने उसकी बत्ती तेज करके दियासलाई बता दी । इससे दो ही घंटे में वह तेल समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार अधिक समय तक चल सकने वाले आयुष्य को प्रहारादि करके सहसा अकाल में नष्ट कर देने से प्राणों व शरीर पर ममत्व वाले व्यक्ति को कष्ट होता है, कष्ट देना हिंसा है। इसलिए वहाँ जो हिंसा हुई, वह पापकर्म बंधक भी हुई। ... तीसरा समाधान यह है कि यह सच है कि किसी को मारना-जिलाना आपके हाथ में नहीं है, किन्तु मन से शुभाशुभ संकल्प करना तो आपके हाथ में है । मारने और जिलाने का संकल्प ही हिंसा-अहिंसा का मूल कारण है । हिंसा और अहिंसा का स्रोत तो मन के ये संकल्प हैं। जब किसी व्यक्ति के मन में मारने, सताने, कष्ट देने, हानि पहुँचाने, बदनाम करने, अपशब्द For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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