Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 222
________________ हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य २०६ बन्धन होता है । अगर शरीर के द्वारा ही होता तो आत्मविहीन मुर्दा शरीर के भी हो जाना चाहिए और अगर आत्मा के द्वारा ही होता हो तो सिद्धों की आत्मा से भी होना चाहिए। परन्तु जब तक शरीर को आत्मा का पावर नहीं मिलता, तब तक केवल शरीर से कोई स्वतन्त्र क्रिया या कर्मबन्ध नहीं हो सकता। तब प्रश्न होता है, क्या आत्मा कर्मबन्ध कर सकता है ? यह जो शुभ या अशुभ कर्मों की धाराएँ बह रही हैं, क्या वे शरीर में नहीं बह रही हैं ? आत्मा तो अदृश्य है, अकेली आत्मा में शुभाशुभ कर्मबन्ध होता हो तो तब तो सैद्धान्तिक आपत्ति यह आएगी कि कर्मबन्ध से अतीत, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा में भी शुभाशुभ कर्म मानने पड़ेंगे, किन्तु ऐसा होता नहीं । इसलिए निष्कर्ष यह निकला कि शरीर और आत्मा दोनों के संयोग से, दोनों के मिलन से संसारी दशा में कर्मबन्ध होता रहता है। अब सवाल यह उठता है कि हिंसा या अहिंसा को व्यक्ति अपने जीवन में लेकर चलता है. तब वह कहाँ-कहाँ किस-किस रूप में रहती है ? पहले मैंने स्पष्ट कर दिया था कि कर्मबन्ध के लिए न अकेला शरीर दोषी है, न अकेली आत्मा। जब आत्मा निरंजन, विशुद्ध, निर्लेप, निराकार हो जाती है, तब उस में कोई स्पन्दन या हलचल नहीं रह जाती, इसी को योगनिरोध कहते हैं। मतलब यह है कि मन, वाणी और शरीर में कम्पन नहीं होता, उस अवस्था को शैलेशी और निष्कम्प अवस्था कहते हैं। दसवें गुणस्थान तक कषाय और योग दोनों से बन्ध होता है, ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में सिर्फ योगों से बन्ध होता है; तथा चौदहवें गुणस्थान में कषाय और योग दोनों ही नहीं रहते । इसलिए वहां अबन्धक दशा है । जब यह स्पष्ट हो गया कि योगों की हलचल शरीर और आत्मा दोनों से होती है, तब हिंसा आदि पाप (आस्रव) भी इन दोनों से होते हैं। पर कौन मुख्य संचालक बनता है, कौन अनुगामी यह देखना है । वास्तव में देखा जाय तो मन-वचन-काया के साथ आत्मा के मिले बिना तो हिंसा आदि की प्रवृत्ति (व्यापार) हो ही नहीं सकती। स्पष्ट है कि आत्मा के द्वारा ही हिंसादि की प्रवृत्ति होती है, किन्तु आत्मा कराता है, शरीर के माध्यम से ही। शरीर में ही मन और वाणी की धारा भी प्रवाहित होती रहती है। मन, वचन और काया तीनों के व्यापार को योग कहते हैं। अतः हिंसा को रोकने के लिए या हिंसा का निरोध करने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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