Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 239
________________ २२६ तमसो मा ज्योतिर्गमय द्रव्यहिंसा होती है, उसे क्षम्य मानी जाती है । बल्कि प्रमार्जन वर्तमान की हिंसा को भी रोकता है, क्योंकि कषायभाव या द्वेषभाव से हिंसा होती है, वह यहाँ रुक सकती है, इसके अतिरिक्त भविष्य में होने वाली महाहिंसा को रोकता है । जैन सिद्धान्त कहता है - पहले ही विवेक रखो, स्वच्छता एवं सफाई रखो, जीवों की उत्पत्ति न होने दो, ताकि भविष्य में होने वाली भयंकर हिंसा से बचा जा सके । वे भ्रान्त साधक वर्तमान में पानी, मिट्टी या हवा के जीवों की द्रव्यहिंसा का तो विचार करते हैं, लेकिन भविष्य में होने वाली महान् हिंसा का कुछ भी विचार नहीं करते । एक जैन भाई हमें उदयपुर के निकटवर्ती बडी ग्राम में स्थित टी. बी. हॉस्पिटल में मिले । उनको टी. बी. हो गया था, इसलिए वे वहाँ भर्ती थे । उन्होंने बताया कि मैंने शरीर के लिए पोषक वनस्पति, फल, शाक-भाजी आदि सब का त्याग कर लिया । मैं सूखे साग खाता था । इससे शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो जाने के कारण मुझे क्षय रोग हो गया । अब यहाँ आने पर मुझे फल वगैरह खाने पड़ते हैं, साथ ही कॉडलीवर ऑइल और माल्ट जैसी दूषित औषधियाँ भी सेवन करनी पड़ती है । अन्यथा, डॉक्टर हॉस्पीटल से निकाल देने की धमकी देता है । अब बताइए, वनस्पतिकायिक जीवों की अल्प हिंसा ( जो कि गृहस्थ के लिए त्याज्य नहीं है) के भ्रम से धर्मपालन के योग्य शरीर को पोषण देना बन्द कर देने से अब कितनी भयंकर हिंसाओं का सामना करना पड़ रहा है। एक व्यापारी है । उसे व्यापार प्रारम्भ करने या चलाने के लिए कुछ खर्च भी करना पड़ता है, परन्तु ऐसा करने से यदि वह काफी अच्छा लाभ प्राप्त कर लेता है तो क्या वह किया हुआ खर्च कभी नुकसान में परिगणित किया जा सकता है ? कदापि नहीं । इसी प्रकार यदि कोई गृहस्थ शरीर से धर्मपालन करने के लिए उस शरीर की रक्षा व पोषण हेतु वनस्पति, जल आदि का विवेकपूर्वक उपयोग करता है । उसमें कुछ स्थावरजीवों की हिंसा हो भी जाती है, किन्तु उससे पंचेन्द्रिय जीवों की दया, तथा अहिंसा, सत्य आदि धर्मों का पालन रूप महालाभ होता है । थोड़ी-सी स्थावर जीव की द्रव्य - हिंसा के भ्रम में यदि शरीर रक्षा के प्रति उपेक्षा की जाए तं भविष्य में होने वाले अहिंसा के महालाभ से वंचित ही रहता है । जैन धर्म‍ —पुरुषार्थ. ५ १ हिंसा फलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनहिंसा दिशयहिंसा फलं नान्यत् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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