Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 238
________________ हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य २२५ भविष्य को महाहिंसा को रोकने के लिए वर्तमान की अल्प हिंसा कई बार साधक हिंसा और अहिंसा को व्यवहार में चरितार्थ करने में फेल हो जाता है। वह यह नहीं सोच पाता कि वर्तमान में जरा-सी अल्प हिंसा का बचाव भविष्य में महाहिंसा को न्योता देने वाला तो नहीं होगा? उदाहरण के तौर पर मकान की सफाई (प्रमार्जन) करना है। मकान को सफाई करते समय चाहे कितने ही कोमल उपकरण लिये जाएँ, प्रायः जीव इधर से उधर होते हैं, घसीटे भी जाते हैं, उन्हें परिताप भी होता है, उन्हें स्पर्श करने से वे भयभीत होते हैं, उन्हें आपस में इकट्ठे कर देने से वे दुःख पाते हैं, और ये सब प्राणातिपात की कोटि में हैं । केवल श्वास निकाल देना ही हिंसा का अर्थ नहीं है, किन्तु हिंसा का दूसरा नाम प्राणों को कष्ट पहुँचाना है । जैन धर्म की दृष्टि से प्राणातिपात का अर्थ इस प्रकार है पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास-निःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दर्शते भगवद्भिरुक्ता, तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये पांच इन्द्रियाँ; मनबलप्राण, वचनबलप्राण और कायाबलप्राण ये तीन बल; उच्छवास-निःश्वास और आयु ये दश द्रव्यप्राण; और (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्त बलवीयं ये ४ भावप्राण) भगवान ने बताये हैं उनको सताना, भंग करना, चोट पहुँचाना या वियुक्त (खत्म) कर देना ही प्राणातिपात है। हाँ, तो अहिंसा-साधक कई बार भ्रमवश सोचने लग जाता है कि सफाई करूंगा तो जीवहिंसा होगी। इसलिए मारवाड़-मेवाड़ में तो कई जगह झाडू देने आदि का त्याग गृहस्थ लोग करते हैं। परन्तु वे यह नहीं सोचते कि अगर मकान की सफाई नहीं की जाएगी तो दिन-ब-दिन गन्दगी बढ़ती ही जाएगी, जीव अपने जाले जमा लेंगे, सांप, बिच्छू, दीमक तथा अन्य जन्तु भी अपना अड्डा जमा लेंगे, अर्थात् जीवों से सारा घर भरा नजर आएगा। फिर जब भी घर के आदमी चलेंगे, फिरेंगे या अन्य प्रवत्ति करेंगे तो कितने जीव मारे जाएँगे? अतः सफाई न करने से भविष्य में होने वाली महान् हिंसा से बचने के लिए वर्तमान की अल्पहिंसा-जो कि असावधानीवश होती है, सावधानीपूर्वक प्रतिदिन प्रमार्जन (सफाई) की जाए तो वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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