Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 232
________________ हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य २१६ तीसरा व्यक्ति है, जो स्वयं ऑपरेशन करने में अनभिज्ञ है, लेकिन जो ऑपरेशन करने में निष्णात डॉक्टर है, उसे ऑपरेशन न करने देकर लोभवश स्वयं ऑपरेशन करता है तो उसको स्वयं करने में अधिक पापबन्ध हुआ । हालांकि ऐसे आदमी द्वारा किया हुआ ऑपरेशन सफल भी हो जाए, फिर भी सरकार में वह अपराधी ही माना जाएगा, क्योंकि उसने ऑपरेशन से अनभिज्ञ होते हुए भी किया। पहले डॉक्टर को कराने में अधिक पाप लगा, दूसरे को कराने पर भी अल्प पाप हुआ और तीसरे को स्वयं करने में भी अधिक पापबन्ध हुआ । इन तीनों में अन्तर विवेक का है। पहला और तीसरा अविवेकी है, उनके द्वारा कराने और स्वयं करने में अधिक पाप लगा, जबकि दूसरा विवेकी है, जिसने दूसरे विवेकी पुरुष से कराया, इसलिए अल्प पाप लगा। जीवन में इस प्रकार की अनेक घटनाएँ प्रतिदिन होती रहती हैं। जैन धर्म प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे विवेक की बात करता है । यलाचारपूर्वक प्रत्येक शुभ कार्य करने की आज्ञा देता है । यत्नाचारपूर्वक कार्य करते हुए भी अगर हिंसा हो जाती है, तो वह पापकर्मबन्धक नहीं होती। मान लो, श्रावक की भूमिका में अगर कोई गुहस्थ है तो वह भी आरम्भजा हिंसा में विवेक और यतना रखे तो अधिक हिंसा से बच सकता है। कई लोग इस विषय में भ्रान्ति के शिकार होकर घर पर बना कर खाने की अपेक्षा हलवाई के यहाँ से बनी हुई चीजें खाने में कम हिंसा मानते हैं, लेकिन वे यह नहीं सोचते कि हलवाई के यहाँ कौन सा विवेक रखा जाता है ? कई दफा तो बूरे में लटें या कई जीव पड़े रहते हैं, आटे और पानी को भी वहाँ कौन देखता है ? उसकी अपेक्षा घर में अगर विवेक से चीजें बनाई गई हैं, पानी, आटा, लकड़ी तथा अन्य सामग्री देखकर ही खाद्य पदार्थ बनाए गए हैं, तो आप ही अपनी बुद्धि के गज से नाप कर देखें कि किस में कम पाप लगेगा? निष्पक्ष बुद्धि से जांच करके देखें तो आपको यह निर्णय करते देर न लगेगी कि दूसरे के द्वारा सीधी बनी हुई वस्तु खाने में अधिक हिंसा है या अपने घर पर विवेक से बनी हुई वस्तु खाने में है ? . निष्कर्ष यह है कि जहाँ विवेक और यत्नाचार है, वहाँ तो करने में अल्प पाप है, कराने में भी अल्प पाप है, लेकिन जहाँ विवेक नहीं है, यत्नाचार नहीं है, वहाँ करने में भी अधिक पाप है, कराने में भी अधिक पाप होता है । विवेक एवं यत्नाचार न हो तो अल्प पाप के कार्य भी अधिक पाप के बन जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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