Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 226
________________ हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य २१३ है, ऐसी बात नहीं; कई बार दूसरों से हिंसा कराता है, और कई बार न तो स्वयं करता है, न कराता है, सिर्फ हिंसा का अनुमोदन-समर्थन करता है। इन तीनों करणों का उक्त तीन योगों के साथ मिलन होता है । यानी पूर्वोक्त ३६ भेदों को तीन करणों के साथ गुणित करने पर हिंसा के १०८ भेद हो जाते हैं। हिंसा के इन १०८ भेदों से विरत होना ही अहिंसा को प्राप्त करना हैं । ज्यों-ज्यों मनुष्य हिंसा के इन प्रकारों से निवृत्त होता जाता है, त्योंत्यों वह अहिंसा के भेदों की साधना में प्रवृत्त होता जाता है। इसलिए स्पष्ट है कि जितने भेद हिंसा के हैं, उतने ही भेद अहिंसा के हैं। किन्तु हिंसा के इन भेदों से निवृत्त होने के लिए अप्रमत्तता की जरूरत है। प्रमाद अथवा असावधानी के रहते हुए मनुष्य हिंसा से विरत नहीं हो सकता। जैन श्रावक को हिंसा-त्याग की मर्यादा जैन श्रावक दो करण एवं तीन योग से हिंसा का परित्याग करता है। वह किस रूप में, किस हिंसा का त्याग करता है, इसे मैं प्रसंगवश आगे बताऊँगा । अभी तो करण और योग के प्रसंग में श्रावक के अहिंसा व्रत की मर्यादा यह है कि वह न तो मन, वचन और काया से हिंसा करता है और न ही मन-वचन काया द्वारा हिंसा करवाता है । अनुमोदन की छूट रखता है-मन, वचन, काया से । स्पष्ट तौर से कहें तो हिंसा का त्याग ६ प्रकार से होता है (१) अपने मन में स्वयं किसी जीव की हिंसा करने के भाव आने पर। (२) अपने मन में किसी व्यक्ति को उस जीव की हिंसा करने के लिए कहने का भाव आने पर। (३) कोई व्यक्ति स्वतः ही उस जीव की हिंसा कर दे तो, बहुत अच्छा, इस प्रकार का मन में भाव आने पर । (४) अपने मुख से कहना कि मैं इस जीव की हिंसा करूंगा। (५) किसी अन्य व्यक्ति से कहना कि इस जीव की हिंसा कर दो । (६) कोई व्यक्ति किसी जीव की हिंसा कर रहा हो तो उसे अपने वचनों द्वारा और भी प्रोत्साहित करना । (७) स्वयं जीव को हिंसा करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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