Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 223
________________ २१० तमसो मा ज्योतिर्गमय मन के अशुभ संकल्परूप व्यापारों को हटाना चाहिए, वचन को असद्भाषणरूप व्यापार से रोकना चाहिए और काया को हिंसादि की बाह्य चेष्टा करने से रोका जाना चाहिए। इस प्रकार तीनों योगों पर नियन्त्रण रखने से मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसा के तीनों स्रोत रुक जाते हैं। इन तीनों स्रोतों से हिंसा रुक जाएगी तो आत्मा से भी हिंसा बन्द हो जाएगी। __मन पहला योग है । यह योग इतना जबर्दस्त है, कि अधिकतर काम तो यही करता है, यही हिंसा के प्लान बनाता है, यही वचन और काया को प्रेरित करता है, यही लम्बी-लम्बी उड़ानें भरता है । भावहिंसा के प्रसंग में मैंने कहा था कि उसकी आधारभूमि मन है। जैसे कोई इन्जीनियर मकान बनाना चाहता है तो पहले उसका नक्शा मन में खींच लेता है, उसके बाद कागज पर उसका नक्शा बनाता है, फिर कारोगरों और मजदूरों को मकान के निर्माण कार्य में नियुक्त करता है। इसी प्रकार आत्मारूपी इंजीनियर हिंसा करने के लिए भी पहले मन में योजना बनाता है, उसके बाद वह हिंसा का नक्शा प्रस्तुत करता और वाणी से कहता है, तदनन्तर शरीर के अंगोपांगों को कारीगरों और मजदूरों के रूप में हिंसा को क्रियान्वित करने के लिए नियुक्त करता है। इसलिए मन ही इन दोनों का सरदार है । जितनी भी क्रियाएँ, हलचलें हैं, स्पन्दन या हरकतें हैं, वे सब पहले मन में ही जन्म लेती हैं। विश्व के सभी दर्शन इस बात को मानते हैं। बौद्ध धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ 'धम्मपद' में भी कहा है "मनो पुव्वंगमा धम्मा, मनोसेट्टा मनोमया। मनसा चे पट्टेन, भासति वा करोति वा ॥" जितने भी विकल्प उठते हैं, वे शुभ हों या अशुभ, सर्वप्रथम मन में ही उठते हैं। जितनी भी हरकतें होती हैं, वे मनोमय होती हैं, मन से ही श्लिष्ट होती हैं, मन से प्रयुक्त होकर ही प्राणी बोलता है या क्रिया करता है। हमारा सारा जीवन मानसिक अध्यवसायों से परिपूर्ण है, उसी से संचालित एवं प्रेरित होता है। अतः मन में उत्पन्न अध्यवसाय ही मुख्य रूप से हिंसा के जनक हैं। ___ मन में प्रतिक्षण समुद्र की लहरों की तरह विचारों की लहरें उठती रहती हैं । विचारों का ज्वार-भाटा जब उठता है, तब इतने वेग से उठता है. मानो मन नाच रहा है । क्षण भर में स्वर्गलोक की उड़ान भरता है, दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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