Book Title: Tamso ma Jyotirgamayo
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 219
________________ २०६ तमसो मा ज्योतिर्गमय हिंसकों की तीव्रता-मंदता के अनुसार हिंसा फल जैसे जीवों की चेतना आदि के विकास के अनुसार उनकी हिंसा तीव्र-तीव्रतर फलदायिनी बनती है, वैसे ही हिंसाकर्ता की तीव्र, मध्यम एवं मन्द भावना के अनुसार हिंसा भी तीव्र, मध्यम एवं मन्द फलदायिनी होती है। जैसे एक व्यक्ति पंचेन्द्रिय जीव को मारता है तो उस एक ही जीव की हिंसा हिंसक के तीव्र परिणाम होने से तीव्र फलदायिनी होती है, विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के) जीवों की हिंसा करते समय हिंसाकर्ता की भावना मध्यम होती है, वह हिंसा भी मध्यम फलदायिनी होती है, तथा एकेन्द्रिय (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय) जीवों की हिंसा करते समय हिंसाकर्ता की भावना मन्द होती है। इसलिए वह हिंसा अनेक जीवों की होते हुए भी मन्द फलदायिनी होती है। क्या वनस्पति पर चाकू चलाने वाला और किसी मनुष्य या पशु की गर्दन पर चाकू चलाने वाला दोनों समान हिंसाजनित पाप के भागी हैं ? क्या दोनों को हिंसा समान फलदायिनी हो सकती है ? कदापि नहीं। पूर्व, पश्चात् और अनारब्ध हिंसा का फल कोई हिंसा ऐसी होती है, जिसे आरम्भ करने से पूर्व ही उसका फल मिल जाता है, कोई हिंसा ऐसी है, जिसका फल करते समय मिलता है, किसी हिंसा का फल करने के बाद मिलता है, किसी हिंसा को आरम्भ करना चाहते हुए भी, की न जाने पर भी उसका फल मिलता है। जैसे एक शिकारी वन्य जीवों का शिकार करने के लिए जंगल में गया, वहां शिकार के रूप में जीव की हिंसा करने से पूर्व ही सिंह ने उसे देखते ही झपट कर फाड़ डाला। इसी प्रकार कोई शिकारी किसी शेर पर गोली चलाता है, उस समय निशाना चूकते ही शेर झपट कर शिकारी का काम तमाम कर देता १ एकस्य सैव तीव्रदिशति फलं, सैव मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले । -पुरुषार्थ. ५३ २ प्रागेव फलति हिंसा, क्रियमाणा फलति, फलति च कृताऽपि । . आरभ्यकर्तुमकृताऽपि फलति हिंसानुभावेन ॥ --पुरुषार्थ ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246