Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 13
________________ प्राकथन O आज मेरे लिए बड़े हर्ष और सौभाग्यका अवसर है कि मैं अपने सुयोग्य शिष्य तथा प्रिय मित्र जगदीशचन्द्र जैन एम. ए. द्वारा अनुवादित तथा संपादित स्याद्वादमञ्जरीके आदिमें कतिपय शब्द लिख रहा हूँ । ग्रन्थ, ग्रन्थकार, ग्रन्थके सिद्धान्तों और उनसे सम्बद्ध अनेक विषयोंका परिचय तो जगदीशचन्द्रजीने पाठकोंको सरल और निर्दोष राष्ट्रीय भाषामें भली भाँति दे ही दिया है । मुझे इस विषय में यहाँपर अधिक कुछ नहीं कहना है । मेरे लिये तो एक ही विषय रह गया है। वह है पाठकोंको सम्पादक महोदयका परिचय देना । जगदीशचन्द्र जैन सुप्रसिद्ध काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके अग्रगण्य स्नातकोंमेंसे हैं । उन्होंने वहाँसे सन् १९३२ में दर्शन ( Philosophy) में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की थी । विश्वविद्यालयके गर्भ में भारतीयदर्शन - विशेषतः जैन और बौद्ध — के साथ साथ उन्होंने पाश्चात्य दर्शनका गहरा और विस्तृत अध्ययन किया, और दार्शनिक समस्याओं पर निष्पक्ष भावसे स्वतंत्र विचार किया। मुझे उनके आचार-विचार और आदर्शोंसे खूब परिचिति है, क्योंकि वे कई वर्ष तक मेरी निरीक्षकता ( Wardenship) में छात्रावासमें रहे हैं, और उन्होंने मेरे साथ मनोविज्ञान ( Psychology ) और भारतीयदर्शनका अध्ययन किया है | सायंकाल के भ्रमणमें अक्सर उनके साथ दार्शनिक विषयोंपर बातचीत हुआ करती थी। अपनी इस परिचितिके आधारपर मैं निःसंकोच यह कह सकता हूँ कि जगदीशचन्द्रजी एक बहुत होनहार दार्शनिक विद्वान् और लेखक हैं । दार्शनिकोंके दो सबसे बड़े गुण – निष्पक्ष और न्यायपूर्वक विचार और समन्वय बुद्धिउनमें कूट कूट कर भरे हैं । वे केवल दार्शनिक ही नहीं हैं, सहृदय भी हैं । यही कारण है कि अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और अहिंसावादमें उनकी श्रद्धा है । स्याद्वादमञ्जरी में इन सिद्धान्तोंका प्रतिपादन है, इसीलिये उन्होंने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका राष्ट्रभाषामें अनुवाद तथा सम्पादन किया है । अनुवाद और सम्पादन बहुत ही उत्तम तसे हुए हैं । प्रत्येक श्लोक और उसकी टीकाके अनुवादके अन्त में जो भावार्थ दिया गया है, उसमें विषयका बहुत सरलतासे प्रतिपादन हुआ है । कहीं कहीं जो टिप्पणियाँ दी गई हैं, वे भो बहुत उपयोगी हैं । अन्तमें सब दर्शनों सम्बन्धी — विशेषतः बौद्धदर्शन सम्बन्धी - परिशिष्टों और कई प्रकारको अनुक्रमणिकाओंने पुस्तकको बहुमूल्य बना दिया है । गुणज्ञ पाठक स्वयं ही समझ जायेंगे कि सम्पादक महोदयने कितना परिश्रम किया है। मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि इस पुस्तकका प्रचार खूब हो, और विशेषतः उन लोगों में हो जो जैनधर्मावलम्बी नहीं हैं । सत्य और उच्च भाव और विचार किसी एक जाति या मजहववालोंकी वस्तु नहीं हैं। इनपर मनुष्यमात्रका अधिकार है। मनुष्यमात्रको अनेकान्तवादी, स्याद्वादी और अहिंसावादी होनेकी आवश्यकता है । केवल दार्शनिक क्षेत्रमें ही नहीं, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रमें, विशेषतः इस समय जब कि समस्त भूमण्डलको सभ्यताका एकीकरण हो रहा है और सब देशों, जातियों और मतोंके लोगों का संपर्क दिन पर दिन अधिक होता जा रहा है-इन ही सिद्धान्तोंपर आरूढ़ होनेसे संसारका कल्याण हो सकता है । मनुष्यजीवन में कितना ही वाञ्छनीय परिवर्तन हो जाय, यदि सभी मनुष्योंको प्रारम्भसे शिक्षा मिले कि सब ही मत सापेक्षक हैं; कोई भी मत सर्वथा सत्य अथवा असत्य नहीं है; पूर्ण सत्यमें सब मतोंका समन्वय होना चाहिये; और सबको दूसरोंके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिये जैसा कि वे दूसरोंसे अपने प्रति चाहते हैं। मैं तो इस दृष्टि प्राप्त कर लेनेको ही मनुष्यका सभ्य होना समझता हूँ। मैं आशा करता हूँ कि यह पुस्तक पाठकोंको इस प्रकारकी दृष्टि प्राप्त करने में सहायक होगी । भिक्खनलाल आत्रेय एम. ए., डी. लिट्., आषाढ़ पूर्णिमा १९९२ दर्शनाध्यापक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

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