Book Title: Swarup Deshna Vimarsh
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti

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Page 201
________________ स्थूलता- यह भी पुद्गल से उत्पन्न होने के कारण उसकी ही पर्याय है। संस्थान- संस्थान का अर्थ है आकार रचना विशेष । जैसे मेघ आदि का आकार अवश्य है, किन्तु उसका निर्धारण सम्भव नहीं है। भेद- पुद्गल पिण्ड का भंग हो जाना भेद है। पुद्गल के विभिन्न भंग टुकड़े उपलब्ध होते हैं । अतः भेद का भी पुद्गल पर्याय कहा गया है। तम- जो देखने में बाधक हो और प्रकाश का विरोधी हो वह अन्धकार है। प्रकाश पथ में सघन पुद्गलों के आ जाने से अन्धकार की उत्पत्ति होती है। छाया- प्रकाश पर आवरण पड़ने से छाया उत्पन्न होती है। आतप- सूर्य आदि के निमित्त से होने वाले उष्ण प्रताप को आतप कहते हैं। आतप मूल में ठंडा होता है, किन्तु उसकी प्रभा उष्ण होती है। उद्योत-चन्द्रमा जगन आदि के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते हैं। उद्योत की प्रभा और मूल दोनों शीतल होते हैं। उद्योत में अधिकांश ऊर्जा प्रकाश किरणों के रूप में प्रकट होती है। धर्म द्रव्य- जैन दर्शन का एक पारभाषिक शब्द है यह एक स्वतंत्र द्रव्य है जो गतिशील जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी है। लोकवर्ती छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल में ही गतिशीलता पाई जाती है। ये एक स्थान से दूसरे स्थान को भी जाते हैं। शेष धर्म-अधर्म आकाश काल ये चार द्रव्य निष्क्रिय हैं। इनमें हलन-चलन आदि क्रिया नहीं पायी जाती। धर्म द्रव्य समस्त लोक व्यापी अखण्ड द्रव्य है। अधर्म द्रव्य-जिस प्रकार जीवों और पुद्गलों की गति में धर्म द्रव्य सहायक है, उसी तरह अधर्म द्रव्य ठहरने में सहायक है। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य उदासीन निमित्त है।इनकी उपस्थिति में हम चलना चाहें तो धर्म द्रव्य हमारा साथ देने को तैयार खड़ा है।यदि हम ठहरना चाहे तो अधर्म द्रव्य हमारे स्वागत में प्रतीक्षारत है। आकाश द्रव्य- जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश प्रदान करता है वह आकाश है। आकाश अनन्त है, किन्तु जितने आकाश में जीवादि अन्य द्रव्यों की सत्ता पाई जाती है वह लोकाकाश कहलाता है, और वह सीमित है। लोकाकाश से परे जो अनन्त शुद्ध आकाश है उसे अलोकाकाश कहा जाता है। उसमें अन्य किसी द्रव्य का अस्तित्व नहीं है और न हो सकता है। क्योंकि वहाँ गमनागमन के साधनभूत धर्मद्रव्य का अभाव है। स्वरूप देशना विमर्श 185 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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