Book Title: Swarup Deshna Vimarsh
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti

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Page 242
________________ 24. आराध्य के प्रति ऐक्य दृष्टि- आचार्यश्री का चिन्तन है कि अपने आराध्य के प्रति ऐक्यपना लाते हुए स्वयं में भी एक्यपना लावें, उदाहरण- जब पिता के नाम पर उनके दो बेटे लड़ने लग जावे तब उनके पिताओं को थोड़ा गौण करके दादाजी के नाम से ऐक्यपना लावे । यदि विराग- विद्या – विशुद्धादि के नाम पर विकल्प उठे तो इन सबको गौण करके इनके दादा-परदादा को तीर्थंकर महावीर के नाम से ऐक्यपना लावे । समाज की अखंडता आवश्यक है। आचार्यों की परम्परा पृथक-पृथक सही, नंदि संघ, सेनसंघ, सिंहसंघ आदि किन्तु भगवान महावीर तो सबके हैं। पिताजी संभाग है और दादा पूरा राष्ट्र है। पृ० 173 25. पर उपदेश कुशल बहुतेरे- आचार्यश्री ने यह सूक्ति निम्न प्रकार स्पष्ट की है। . दूसरे को समझाने वाले अनेक मिल जाते हैं उनके इन्हें ज्ञान से समझाना होता है किन्तु स्वयं के घर घटना घटित होने पर समझने के लिए विवेक और धैर्य की आवश्यकता होती है। जीव जब भी समझेगा स्वयं की समझ से समझेगा न कि दूसरे की समझ से ॥ शोकाकुल परिवार के घर भी किसी दिन विशेष समय विशेष पर ही जाना सदैव असाता का आश्रव मत कराना । पृ० 170? 26. मंदिर के चित्र सच्चरित्र वालों के हैं- मंदिरों में चित्र उनके होते हैं जिनके सच्चरित्र होते हैं अथवा जिनके चरित्र विशाल होते हैं। भोगियों के, रागियों के चित्र घर में भी उतार देने चाहिए । तस्वीरें ऐसी देखो जिनसे तकदीर सुधर जाये न कि फूट जाये। जिन्हें देवाधिदेव मिल जाते हैं वे अन्य देवों को भूल जाते हैं। जिन्हें सुन्दर रूप व विद्या चाहिये उन्हें श्रीजिन भक्ति अवश्य करनी चाहिए क्योंकि "भक्ते सुन्दररूपं” आचार्य श्री समन्तभद्राचार्य जी का कथन है। पृ० 181-182 27. मुनियों के छह काल/समय-दीक्षा-शिक्षा -गणपोषण, आत्मसंस्कार, सन्यास एवं उत्तमार्थकाल । इन छ: कालों में आत्मसंस्कार काल आत्मा को संस्कारित करते हैं। फिर गण को भी छोड़ देते हैं। निर्विकल्प होकर निजानुभव का वेदन करो। सबसे विराम लेकर आत्मानंद लें। मुनियों की वृत्ति आगम में आलोक्य/एकांत वृत्ति होती है। वीतराग वाणी के श्रवण से ही वीतरागपने की प्राप्ति होगी । (इन छ: कालों की परिभाषायें पृ० 256-260 से देखें) 28. जिनशासन में साधु को भगवान कहा है- जिस योगी की भिक्षावृत्ति, वचन प्रवृत्ति हितकारी है और शोध कर चलते हैं। अर्थात् चाल, चलन और बोलचाल, भोजन प्रवृत्ति, बोलने की शैली और चलने की प्रवृत्ति अच्छी है। ऐसे • (226 स्वरूपदेशना विमर्श 226 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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