Book Title: Swarup Deshna Vimarsh
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti

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Page 246
________________ कल्याण की भावना होनी चाहिए क्योंकि धर्म का मूल दया है। “धम्मस्यमूलंदया” हमारी सोच समीचीन होना चाहिए। 43. घरों में सुख-शांति चाहिए तो सदाचरण – धर्माचरण अपनायें- घरों में सुख शांति हेतु- श्री भक्तामर जी/णमोकार मंत्र का पाठ होना चाहिए । मारपीट नहीं माता-पिता के चरण स्पर्श, सद्वाणी, सम्मान की भावना होना चाहिए। वात्सल्य होना चाहिए । परिवारजनों का साथ त्रैकालिक नहीं, तात्कालिक (उसी पर्याय का) है। दूसरे को भी पर मत समझो, संभव है कि वही सहायक बनकर संभाल देगा।पृ० 255 44.शिष्य-सेवक में अन्तर- शिष्य बनाना साधुता का एवं सेवक बनाना परिग्रह का कार्य है। वीतरागी श्रमण सेवक नहीं शिष्य बनाता है। सेवा करना शिष्य का धर्म/कर्तव्य है। किन्तु सेवा चाहना किंचित् मात्र भी धर्म नहीं है। वह तो परिग्रह है। इसलिए जैन दर्शन में साधु सेवा का नहीं वैय्यावृत्ति शब्द प्रयुक्त हुआ है। स्वामी या सेवट पना तो रागद्वेष रूप परिणमन है और वैय्यावृत्ति अंतरंग तप है। स्वामी – सेवक भाव छोटे-बड़ों में हो सकता है ये अर्हन्तमुद्रायें | मुनिमुद्रायें किसी के सेवक नहीं होते। शिष्य होते हैं। पृ० 258 45. जीने को खाने वाला योगी- खाने को जीने वाला भोगी- आचार्य सन्मति सागर जी के उदाहरण से आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने योगी-भोगी की वृत्ति स्प्ष्ट की है वे मासोपवासी होकर खड़े होकर सामायिक करते थे क्योंकि योगी जीने के लिए खाता है जबकि भोगी खाने के लिए जीता है। स्वात्मोपलब्धि का उपाय रत्नत्रय की एकता ही मोक्षमार्ग है। पृथक-पृथक नहीं ॥ पृ0 260 46. योगत्रय की शुद्धि कैसे?- बारसाणुपेक्खा- आचार्य श्रीकुन्द कुन्द जी के अनुसार काय की शुद्धि परमेष्ठी के नमस्कार पूजा, वंदना से, वचन योग की शुद्धि अरिहंतादि की स्तुति करने तथा मनयोग की शुद्धि प्रभुगुण चिन्तन से होती है। घर के फर्श को थोड़ा सा भी गंदा होने पर तुरन्त पानी से साफ कर लेते हैं उसी प्रकार अन्तस के हृदयफर्श पर रागद्वेष क्रोध कषायादिरूप साधिक कचरा पड़ा है उसे वीतराग वाणी के नीर से प्रक्षालित कर लें। हम तत्वज्ञानार्जन के नाम पर प्रभु पूजा नहीं छोड़ें, चक्रवर्ती पूजनोपरान्त समवशरण में बैठकर देशना श्रवण करता है हम भी स्वाध्याय करें। वाचना-पृच्छना आम्नाय अनुप्रेक्षा-उपदेशरूप जिनाज्ञा है।पृ० 265 230 -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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