Book Title: Swarup Deshna Vimarsh
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti

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Page 252
________________ जिनशासन की प्रभावना होती है तथा साधु को भी एक ही स्थान से अथवा कुछ ही भक्तों के प्रति मोह राग भाव जाग्रत नहीं होता है। हम बाह्य जगत में जैनाचार से जैन संस्कृति का अवश्य संरक्षण करते रहें। पृ० 335-336 69. पूर्वाचार्यों का पुनीत स्मरण एवं परनिंदा त्याग की प्रेरणा- आचार्य श्री ने जैन वाङ्गमय को विकसित-संरक्षित करने वाले श्री समन्तभद्र, विद्यानंद, वादीभसिंह, वादिभिराज, अकलंक जैसे पूर्वाचार्यों का मंगल स्मरण किया है क्योंकि इन्होंने पहले लखा फिर लिखा है। परनिंदा - आलोचना नहीं की, इसलिए वे स्वयं प्रशंसनीय है। हम स्वयं का आत्म प्रक्षालन करें, पर की चिन्ता - निन्दा में नहीं? पृ० 338 70. पुण्य-पाप का परिणमन और प्रतिफल-सीता के पुण्योदय में सीता हरण होने पर राम वियोग में पत्तों-पाषाण-प्रकृति से भी पता पूछ रहे थे और सीता का . पापोदय आने पर वही राम अग्निकुंड में जाने को कह रहे थे। यह केवल राम, रावण, सीता का दोष नहीं, कर्मोदय वशात ऐसे संयोगों का प्रतिफल है। अतः हम प्रयत्नशील हों कि यथाशक्य अशुभ से बचें और शुभ में प्रवृत्त हो । पृ० 339-340 71. शुभाशुभ कर्म के चार साक्षी- प्रत्येक शुभाशुभ कर्म के 5 साक्षी सदैव सर्वत्र हैं। समय, कर्म, सर्वज्ञ और चौथा स्वयं कर्ता । समय-कर्म और सर्वत्र तथा करने वाला इन सबको सब दिखता है, किसी से छिपता नहीं है। कमरा बंद कर पाप किया जा सकता है किन्तु पाप का फल तो खुले में ही भोगना पड़ेगा । पुण्य भले ही एकान्त में करलो पुण्य का फल खुले में भी आयेगा । एक श्रीपाल ने साधु निंदा की, 700 साथियों ने समर्थन किया । अशुभ फल सभी को खुले में भोगना पड़ा । कारण कार्य विधान सुनिश्चित है। जैसे कारण होगें कार्य वैसा ही होगा। हम केवल घड़ी की सुईयों की ओर नहीं उन सुईयों को चलाने वाली बैटरी को भी अवश्य देखें तथैव केवल कार्य या कार्य के फल को नहीं उन पूर्वकृत/अदृष्ट कारणों को भी समझे जिनसे ऐसा फल मिलता है। पृ० 341-342 72. सर्वप्रथम आत्म कल्याण की सोचें अन्य की नहीं- पापाश्रव गूढगर्भ होता है जिनमें संतान पलती बढ़ती रहती है। बुराई झगड़े का कलंक अमिट होता है। मंथरा, कैकयी, बाहुबली ये सभी स्वर्ग मोक्षगामी हो गये किन्तु इनके कार्य आज भी यहाँ अमिट हैं। फोड़े के दाग की तरह । इसलिए कषायादि त्याग कर केवल आत्महित की चर्चा करें। वीतराग भाव में आम्नाय-पंथ कुछ नहीं -स्वरूप देशना विमर्श 236 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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