Book Title: Swarup Deshna Vimarsh
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti

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Page 216
________________ आचार्य श्री कि भाषा में कितनी सूक्ष्मता होती है देखें - "हे ज्ञानी ! भगवान तुझे भगवान नहीं बनायेगें, तेरे निज के भाव ही तुम्हें भगवान बनायेगें। जो निज के भावों का भी नाश कर लेता है, वही भगवान् बनता है ।” आगामी गाथाओं में आचार्य भगवन ने सम्यक् चारित्र के स्वरूप को बताया है। संयम के सामने सब झुक जाते हैं, वस्तु स्वरूप तो त्रैकालिक है । दृष्टि पवित्र है तो वस्तु सहज पवित्र है और दृष्टि में विकार है तो वस्तु विपरीत दिखाई देती है। | वस्तु में न विकार है न अविकार है, वस्तु तो जैसी है, वैसी ही है। आचार्य श्री भट्ट अकलंक देव स्वामी वस्तु व्यवस्था को बहुत ही सहज सुन्दर शैली में समझाते हैं। आचार्य श्री कहते हैं- ज्ञानी जीवन में धर्म की बहुत बड़ी-बड़ी प्रभावनायें भले ही न कर पायें, परन्तु हमारे द्वारा कभी भी धर्म की अप्रभावना न हो । आचार्य श्री की बातें नोट करने लायक होती हैं- "जिसका पुण्य क्षीण होता है उसका चिन्तवन पवित्र होता ही नहीं । विशुद्धि और उत्साह शक्ति पारमार्थिक और लौकिक दोनों कार्यों में सफल बनाती है ।" "ज्ञानियो! स्वरूप सम्बोधन का तात्पर्य निज आत्मा को निज़ आत्मा से समझाना है। निज आत्मा से निज आत्मा को सम्हालना ही स्वरूप सम्बोधन है। इसलिए ध्यान दो। गुरु का उपदेश भी तभी कार्यकारी होता है जब स्वरूप सम्बोधन हो, प्रभु का उपदेश भी तभी कार्यकारी होता है है जब स्वरूप - संबोधन हो, प्रभु का उपदेश भी तभी कार्यकारी होता है जब स्वरूप सम्बोधन हो । स्वरूप सम्बोधन नहीं है तो न गुरु का उपदेश कार्यकारी होता है, न प्रभु का उपदेश कार्यकारी होता है। आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज कहते हैं अपनों में राग नहीं करो और गैरों में द्वेष मत करो, यही तो स्वरूप सम्बोधन है। स्वाध्याय कभी पूरा नहीं होता, स्वाध्याय तो सतत् होता रहता है, अतः हमें स्वाध्याय करते रहना चाहिए क्योंकि "आत्म स्वभावं पर भाव भिन्नं" ग्रंथ के पूर्ण होने से पहले ही यह लगने लगता है कि बस अब बहुत हो गया। अपने स्वरूप को पाकर सिद्ध शिला पर ही विराजमान होने हेतु पुरूषार्थ करूँ। 200 'चरणों में आया हूँ प्रभुवर ! शीतलता मुझको मिल जावे। मुरझाई ज्ञान लता मेरी, निज अंतर्बल से खिल जावे ॥ विशुद्ध देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञानदीप ! आगम प्रणाम । हे शांति त्याग के मूर्तिमान, शिव पथ पंथी गुरुवर प्रणाम ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only • स्वरूप देशना विमर्श www.jainelibrary.org

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