Book Title: Swarup Deshna Vimarsh
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti

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Page 238
________________ 15. आगम चक्खू साहू' साधु का नेत्र आगम है।पृ० 389 16. कृतान्तागम- सिद्धान्ता ग्रंथः शास्त्रमतःपरम ॥” कृतान्त, आगम, सिद्धान्त, ग्रंथ और शास्त्र ये 5 शास्त्रों के नाम हैं। पृ०117 6. स्वरूपदेशना गत सैद्धान्तिकादि/आगमगत व्याख्यायें आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने स्वरूपदेशना ग्रंथ में अनेकानेक सैद्धान्तिक तथा विभिन्न विषयक व्याख्यायें, जिनागमगत चर्चायें भी सारभूत रूपेण सोदाहरण प्रस्तुत की है। कुछेक निम्न प्रकार है। आइये अवलोकन करें1. जैन साधु योगी, वातरसायन, अलौकिक हैं-दिगम्बर साधु वायुवत् प्रवाहमान रहते हैं। यथा पानी प्रवाहमान होने पर निर्मल किन्तु रूकने पर सड़ता है। तथैव साधुगण व्यवहार से ढाईद्वीप में और निश्चय से निजलोक में विहार करते हैं, यही अलौकिक वृत्ति है। इसीलिए इन्हें वातरसायन कहा है। देहलोक में और देही निजलोक में विहार करता है। पृ० 2 2. कैसे उद्योगपति बने- उद्योगपति तो जगत के बहुत लोग बन गये, अब उस उद्योग का पति बनना है जिसमें उद्योग ही न करना पड़े।जगत का उद्योग बन्द हो जाये । पृ० 8 3. वस्तु स्वातन्त्रयपना- जैन संस्कृति में वस्तु स्वातन्त्रयपना महत्व है। वस्तु व्यवस्था से अनभिज्ञ रोता है। जबकि विज्ञ समता भाव के कारण सुखी है। राग-द्वेष के कर्ता आप हैं वस्तु के कर्ता नहीं है। (पृ० १) वस्तु स्वरूप कैसा वह मिश्र में भी अमिश्र है। कितनी ही अष्टधातु की प्रतिमायें बना लीजिए पर प्रतिमा एक ही दिखेगी, धातुएं स्वतन्त्र हैं। एक में अनेकत्व है। अनेकत्व में एकत्व है यही स्याद्वाद है।पृ०12 4. जैनीवृत्ति स्वेच्छाचार- विरोधनी- जैनी की वृत्ति में स्वेच्छाचार नहीं होता, ये स्वतन्त्रता का मार्ग है स्वछन्दता का नहीं। मोक्षमार्ग स्वतन्त्रता का मार्ग है। पृ० 29 5. स्वरूप सादृश्य अस्तित्वपना- प्रवचनसार द्वितीय अध्यायानुसार स्वरूप व सादृश्य अस्तित्वपना देखें- स्वरूप अस्तित्व की दृष्टि से हम भिन्न-भिन्न हैं। परन्तु सादृश्य से नहीं क्योंकि जैसा जीवत्व भाव तेरे अन्दर है वैसा ही मेरे अन्दर है, निगोदिया, अजगर,शेर के अन्दर भी हैं। यही सादृश्य अस्तित्वपना है। पृ० 47 (222) -स्वरूप देशना विमर्श Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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