Book Title: Swarup Deshna Vimarsh
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Akhil Bharatiya Shraman Sanskruti Seva samiti

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Page 199
________________ छ: द्रव्य त्रैकालिक हैं। जीव द्रव्य का कोई जनक आज तक हुआ ही नहीं है। पुद्गल द्रव्य का कोई जनक नहीं हुआ। धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्य का कोई जनक नहीं हुआ है। ये परिणामिक भाव में रह रहे हैं। इनका कोई जनक नहीं है। जीव स्वयं अपने रागादिक भावों का जनक तो है, वह अपने शुभाशुभ परिणामों का जनक तो है, परन्तु जिसमें शुभाशुभ परिणाम हो रहे हैं उस परिणामी का जनक स्वयं नहीं है। दस प्राणों में से अपने योग्य प्राणों के द्वारा जो जीता है, जीता था व जीवेगा। इस त्रैकालिक जीवन गुण वाले को जीव कहते हैं। अथवा निश्चय नय से चेतना लक्षण वाला जीव है। अथवा शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा यद्यपि यह जीव शुद्ध चैतन्य है। अशुद्ध निश्चय नय से द्रव्य व भाव प्राणों से जीता है 'उपयोगो लक्षणम्' जीव का लक्षण उपयोगमय है और उपयोग ज्ञान-दर्शन रूप है। जीव चैतन्य लक्षण वाला होने से समस्त जड़ द्रव्यों से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। जीव असंख्यात् प्रदेशी है और अनादि काल से सूक्ष्म कार्मण शरीर से सम्बद्ध है। अतः चैतन्य युक्त जीव की पहिचान व्यवहार में पाँच इन्द्रिय मन-वचन-काय रूप, तीन बल तथा स्वासोच्छवास और आयु इस प्रकार दस प्राण रूप लक्षणों की हीनाधिक सत्ता के द्वारा ही की जा सकती है। उदाहरणार्थ- मारीचि को यदि तुमने गाली दे दी तो महावीर के जीव द्रव्य को तुमने गाली दी, यदि अपने बेटे को भी तुमने गाली दी है, तो विश्वास रखना आपने अपने भविष्य को गाली दी है। चेतना जीव का लक्षण है। समस्त सुख दुःख की प्रतीति इसी चेतना से होती है, इसी चेतना के आधार पर समस्त जड़ द्रव्यों से इसकी अलग पहिचान होती है। जैन दर्शन में जीव का सर्वाङगीण स्वरूप मिलता है। जीव को सर्वाङगीण स्वरूप को बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी जी ने लिखा है जीवोत्तिहवदि चेदा उवओग विसेसिदो पहू कत्ता। भोत्ताय देह मेत्तो णहि मुत्तो कम्म संजुत्तो॥27॥ पंचास्तिकाय ॥ जीव के मूलतः संसारी और मुक्त रूप दो भेद हैं कर्म बंधन से बद्ध एक गति से दूसरी गति में जन्म और मरण करने वाले संसारी जीव कहलाते हैं। इसके विपरीत मुक्त जीव कर्म बन्धन से पूर्णतया निवृत्त होकर आत्म स्वातंत्रय को प्राप्त कर लेता है।मुक्त जीव लोकाग्र भाग में स्थित होकर शाश्वत सुख का अनुभव करता है। पुद्गल पुद्गल शब्द पारिभाषिक शब्द है। इसका व्युत्पत्ति अर्थ कई प्रकार से किया जाता है। पुद्गलं शब्द में 'पुद्' और 'गल' ये दो अवयव हैं। पुद्' का अर्थ है पूरा होना या मिलना और 'गल' का अर्थ है गलना या मिटना । जो द्रव्य प्रति समय मिलता गलता रहे बनता बिगड़ता रहे, टूटता जुड़ता रहे वह पुद्गल है।पुद्गल द्रव्य स्वरूप देशना विमर्श -(183) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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