Book Title: Sumitra Charitram
Author(s): Harshkunjar Upadhyay
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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________________ ते विस्मितः प्राह / श्रीसुमित्रनरेश्वरः // प्रभो प्रभुसमादेशा-दज्ञातैकनरक्षयः॥१॥ सुमित्र अभत्तेषां दरंतोऽस्य / विपाकोऽहो भवांतरे // तस्मिाकं तां जीवान् | का गतिर्भवितादिश // 2 // // 104 // अर्थ-आ प्रमाणेनुं दृष्टांत गुरुमहाराजना मुखे सांभळीने आश्चर्य पामेलो सुमित्रराजा बोल्यो के-'हे प्रभु ! अज्ञानपणामां करेला एक मनुष्यना नाशथी पण अन्य भवमा तेओने दुःखे करीने अंत करी शकाय एवू फळ भोगवळू पडयुं तो अमारा जेवा जाणीबूझीने हिंसा करनार जीवोनी कइ गती थशे ?' // 1 // 2 // ततो गुरुरभाषिष्ट / संवृत्तात्मा यदा तपः // कुर्याद द्वादशभेदेन / तदा स्यात्कर्मणां क्षयः॥३॥ .. | ' अर्थ-गुरुमहाराजे कथु के-'संवत आत्मा जो बार प्रकारे तपतुं आचरण करे तो सर्व कर्मनो क्षय जरुर थाय, // 3 // यदक्तं-दीप्यमाने तपोवहो / बाह्ये चाभ्यंतरेऽपि च // यमी जरति कर्माणि / दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् // Al अर्थ-कडं छे के-बळता एका बाह्य अने अभ्यंतर तपरुप अग्निमां दुर्जर-निकाचित एवां कर्मो पण तत्काल लय-नाश पामे छे.' श्रत्वेति नृपतिः कर्मविपाकाद्भयवान् गुरुं // संसारसिंधुसत्पोतं / ययाचे संयतिव्रतं // 5 // ___ अर्थ आ प्रमाणे सांभळीने कर्मना फळथी भयभीत थयेला ते राजाए संसाररुपी समुद्रमां नाव समान एबुं चारित्र ग्रहण करजवानी इच्छा दर्शाती // 5 // गुरुराह तवाद्यापि / राजन् पूर्वभवार्जितं // बहुभोगफलं दान-पुण्यस्यास्ति निकाचितं // 6 // OLODDESEDDDDDDDDDDDDDDDD // 1 4 // PP Ac Gunratresun MS Jun Gun Aaradhak Trust

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