Book Title: Sulsa Charitam
Author(s): Harishankar Kalidas Shastri
Publisher: Jain Vidya Shala
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सुखसा०
॥१०३॥
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सर्ग मो.
पठी तपे करीने दुर्बल थर गएली ते सुलसा अनुक्रमे वृद्धावस्था पामी. कारण के, मनुष्योनुं वय पर्वतनी नदीना जल समूहनी पेठे शीघ्र गति करनारुं बे. ॥ १ ॥ पोतानुं पालुं श्रायुष्य जाणीने करयुं ने संलेखन जेलीए एवी ए सुलसाए पोतानुं. श(तालियवृत्तम् )
अथ सा सुलसा तपःकृशा, क्रेमतः प्राप वयोऽतियौवनम् ॥ गिरिशैव लिन जलौघवर्त्तनुनाजां हि वेयोऽतिगत्वरम् ॥ १ ॥ 'निजमायुरेवेत्य पश्चिमं कृतसंलेखनयानया वपुः ॥ 'विदधे सविशेष निर्मल, कैर्यमौचित्यमपैति तादृशाम् ॥ २ ॥ अवसान दिने समीपगे, हंदि कृत्वा जिनवीरदैवतम् ॥ सुलसा नलसा वृषार्कने, गुरुमांनम्य जंगाद सादरम् ॥ ३ ॥ रीर अत्यंत निर्मल कयुं. कारण के, तेवा माणसोनुं योग्यकार्य केम नाश पामे ? - र्थात् नज पामे ॥ २ ॥ पोतानो अवसान दिवस पासे श्रावे ते श्री जिनेश्वर एवा
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सर्ग०मो.
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