Book Title: Sulsa Charitam
Author(s): Harishankar Kalidas Shastri
Publisher: Jain Vidya Shala
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सुलसा०
॥२०८॥
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जिनेश्वरोना चरण रूप शरण प्रत्ये जा. ॥ २६ ॥ वली जुवनपति, वाणव्यंतर, मनुष्य सर्गणमो. लोक, ज्योतिषी ने वैमानिक देवलोकमां असंख्य शाश्वत एवा चैत्यने विषे रहेलां अरिहंतनां प्रतिबिंबोने जावथी नमस्कार कर ॥ २७ ॥ सिद्धशैल (शत्रुंजय ), श्राबु, गिरनार, कनकाचल ने अष्टापद पर्वतादिकने विषे रहेलां, वली जिनेश्वरनी वे उत्पत्ति वनाधिपवानव्यंतरमनुजज्योतिरमर्त्यभूमिषु ॥
शाश्वतचैत्यसंस्थिताऽई तर्बिवान्यमितानि भवतः ॥ २७ ॥ 'विमलार्बुदरैवताचले, केनकाष्टापदपर्वतादिषु ॥ परास्वपि तीर्थभूमिका स्वपि वेदस्व जिनोभवादिषु ॥ २८ ॥ कर्ममलं विदा 'ये, तपसापुः परमात्मरूपताम् ॥
देश पंच च " बिभ्रतो "निदस्तव "सिद्धाः शरणं नैवंतु "ते ॥ २९ ॥ विगेरे जेमने विषे एवी बीजी पण तीर्थजू मिमां रहेलां एवां पण जिनेश्वरोनां प्रतिबिंबोने | वंदन कर. ||२८|| जे गाढ एवा कर्मना मलने तपथी बालीने परमात्म स्वरूपने पा म्या बे, अने पंदर प्रकारना भेदने धारण करनारा ते सिद्धो व्हारुं शरण था. ॥२॥
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॥१००॥

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