Book Title: Sulsa Charitam
Author(s): Harishankar Kalidas Shastri
Publisher: Jain Vidya Shala

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Page 214
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 00000 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलसा० ॥ १६ ॥ हे सुलसे ! तें तेज प्रमाणे करमीया, पूरा, शंख अने ठीप विगेरे जे बेइंसर्गज्मो. प्रिय जीवो तेमज धूप, मांकड, कीडी तथा कुंथुच्या विगेरे जे तेंद्रिय जातिना जीवो ॥१०६॥ माख्या होय, ॥ १७ ॥ तें जे जमरा, कुत्तिका, मधमांखी, वींटी, छाने करोलीया विगेरे चतुरिंद्रिय तथा जलचर, स्थलचर, श्रने खेचर अर्थात् जल, भूमि धने श्राकाशमां कृमिपूतर शंखशुक्तिका प्रमुखा प्रियकास्तथैव ये ॥ घुमकुकी टिकुंथुकाप्रनृतित्रींद्रियजंतुजातयः ॥ १७ ॥ चेतुरिंडियनृगकुत्तिकासरघाटश्चिकको किलादयः ॥ खजलस्थलचारिदेदिनः, 'किल पंचेंजियका स्त्रिधा पुनः ॥ १८ ॥ इति संसृतिसंश्रिता देता, अभिघातादिदशप्रकारकैः ॥ तनुबादरजंतवस्त्वया, तव मिथ्याऽस्तु तदेंद्य दुष्कृतम्॥ १९ ॥ गति करनारा त्रण प्रकारना पंचेंद्रिय प्राणी माया होय ॥ १८ ॥ ए प्रमाणे तें जे जन्म मरणनो आश्रय करी रहेला सूक्ष्म बादर जीवोने निघातादि दश प्रकारे करीने माया होय, ते सर्व व्हारुं दुष्कृत ( पाप ) आजे मिथ्या थाई ॥ १९॥ For Private and Personal Use Only ॥१०६॥

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