Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ २४ मैं कौन हूँ ? ही उनके हृदय में पूर्ण आत्मस्वभाव को प्राप्त करनेवाले सर्वज्ञ- वीतरागियों के प्रति अनंत भक्ति का भाव रहता है। जिसप्रकार गृहस्थों के बच्चे उनके मकान के सामने से गुजरने वाले मार्ग में खेला करते हैं; उसीप्रकार ये जिनेश्वर के लघुनन्दन मुक्तिमार्ग में खेला करते हैं। तात्पर्य यह है कि उनकी धर्मपरिणति स्वाभाविक और सहज होती है; उन्हें खींचतान कर उसे नहीं करना पड़ता, वह उन्हें बोझ रूप नहीं होती। यद्यपि राग-द्वेष की तीव्रता के काल में उनके बाहर में तीव्र क्रोधादिक रूप परिणति भी देखने में आवे, वे भोगों में प्रवर्त होते हुए भी दिखाई दें, भयंकर युद्ध में सिंह से गर्जते प्रवर्त हों; तथापि उनकी श्रद्धा में पर के कर्तृत्व का अहंकार नहीं होता । पर से पृथक्त्व एवं उसके अकर्तृत्व की श्रद्धा सदा विद्यमान रहती है। उनकी प्रवृत्ति धाय के समान होती है। जिसप्रकार धाय अन्य के बालक का पालन-पोषण भी अपने बालकवत् ही करती है; परन्तु उसके अंतर में यह श्रद्धा सदा ही बनी रहती है कि यह बालक मेरा नहीं है तथा एक समय भी वह इस बात को भूल नहीं पाती। उसीप्रकार ज्ञानी जन जगत के कार्यों में प्रवृत्त दिखाई देने पर भी उन्हें उनसे एकत्व नहीं व्यापता है। जिसप्रकार अनेक गृह-कार्यों को देखते हुए एवं सखीजन से अनेक प्रकार की चर्चायें करते हुए भी महिलाओं का मन अपने पतियों पर ही लगा रहता है, वे उन्हें भूल नहीं पातीं, उसीप्रकार आत्मानुभवी आत्माएँ भी जगत के क्रिया-कलापों में व्यस्त रहते दिखाई देने पर भी आत्मविस्मृत नहीं होतीं । उनकी आत्म जागृति लब्धिरूप से सदा बनी रहती है। जिसप्रकार सेठ के कार्य में प्रवृत्त मुनीम का समस्त बाह्य व्यवहार सेठ के समान ही होता है। वह इसप्रकार की चर्चा व चिन्ता करता हुआ भी देखा जाता है कि 'हमें अपना माल बेचना है, अधिक भाव उतर जावेंगे तो हमें बहुत नुकसान होगा।' हर्ष-विषाद को भी प्राप्त होता देख जाता है; किन्तु अन्तर में सेठ से अपने पृथक्त्व को कभी भी भूलता नहीं 13 आत्मानुभूति पुरुष : अंतर्बाह्य दशा २५ है। वह अच्छी तरह जानता है कि मुझे कैसा नुकसान और क्या लाभ ? लाभ-हानि तो सेठजी की है। उसीप्रकार ज्ञानियों के बाह्य कार्यों में एकाकार दिखने पर भी अन्तर में विद्यमान पृथकता उन्हें जल से भिन्न कमल एवं कर्दम (कीचड़ ) में पड़े निर्मल कंचन के समान ही रखती है। भोगादि प्रवृत्ति के समान देहाश्रित व्रत-संयम क्रियाओं में भी उनका अपनत्व नहीं होता। ज्ञानी - गृहस्थ की दशा बड़ी ही विचित्र होती है। वह न तो भोगों को अज्ञानियों के समान भोगता ही है; क्योंकि उसे भोग की रुचि न होकर आत्मानन्द की रुचि है और न वह अपनी कमजोरी के कारण उन्हें त्याग ही पाता है। यदि पूर्ण त्याग दे तो फिर गृहस्थ न रहकर साधु हो जायेगा । अतः उसकी दशा एक तरह से न भोगनेरूप ही है और न त्यागनेरूप ही । उसकी दशा तो उस कंजूस व्यक्ति के समान है, जो सब प्रकार से सम्पन्न होने पर भी अपनी लोभ प्रवृत्ति के कारण अपने घर स्वयं के लिए मिष्टान्न बना कर कभी खाता नहीं; अतिथि के आने पर कदाचित् बनाता भी है और उसके साथ बैठ कर खाता भी है; पर अतिथि के समान उसमें मग्न नहीं हो पाता ; क्योंकि वह खाते समय भी अपनी लोभ परिणति का ही वेदन करता रहता है, मिष्टान्न के स्वाद का पूरा आनन्द नहीं ले पाता । उसी प्रकार आत्मानुभूति प्राप्त पुरुष विषयों के बीच रहकर भी विषयों के प्रति रुचि के अभाव एवं आत्मरुचि के सद्भाव के कारण अज्ञानी के समान भोगों में मग्न नहीं होता है। अतः उसे इस अपेक्षा भोगी भी नहीं कहा जा सकता तथा अपनी अंतरंग परिणति में जो रागभाव है, उसके कारण वह भोगों को त्याग भी नहीं पाता । अतः वह भोगों का त्याग न कर पाने की वजह से त्यागी भी नहीं कहा जा सकता है। वह न भोगी है और न त्यागी। वस्तुत: वह तो निरंतर त्याग की भावना वाला भोगों के बीच खड़ा हुआ अनासक्त व्यक्ति है। आत्मानुभव प्राप्त ज्ञानी पुरुष की अंतर्बाह्य परिणति एक ऐसा विषय है; जिसके विवेचन के लिए एक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना अपेक्षित है। •

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42