Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ ४० मैं कौन हूँ? करेंगे, तब श्रोता यह समझ सकता है कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं। अतः हम 'किसी अपेक्षा नित्य भी हैं' ह्र ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने से उसके ज्ञान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है; भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण यह बात कही नहीं जा रही है। अत: वाणी में स्यात्पद का प्रयोग आवश्यक है, स्यात्पद अविवक्षित धर्मों को गौण करता है, पर अभाव नहीं। उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है। भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलालजी नेहरु ने भी इस परम सत्य का गहराई से अनुभव किया था। वे राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर की महान कृति 'भारतीय संस्कृति के चार अध्याय की प्रस्तावना में पृष्ठ १२ पर लिखते हैं कि ह्न ___"इतिहास के अन्दर हम दो सिद्धान्तों को काम करते देखते हैं। एक तो सातत्य का सिद्धान्त है और दूसरा परिवर्तन का। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर-विरोधी से लगते हैं, परन्तु ये विरोधी हैं नहीं। सातत्य के भीतर भी परिवर्तन का अंश है। इसीप्रकार परिवर्तन भी अपने भीतर सातत्य का कुछ अंश लिये रहता है। असल में, हमारा ध्यान उन्हीं परिवर्तनों पर जाता है, जो हिंसक क्रान्तियों या भूकम्प के रूप में अचानक फट पड़ते हैं। फिर भी, प्रत्येक भूगर्भ-शास्त्री यह जानता है कि धरती की सतह में जो बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं, उनकी चाल बहुत धीमी होती है और भूकम्प से होनेवाले परिवर्तन उनकी तुलना में अत्यन्त तुच्छ समझे जाते हैं। इसीतरह क्रान्तियाँ भी धीरे-धीरे होनेवाले परिवर्तन और सूक्ष्म रूपान्तरण की बहुत लम्बी प्रक्रिया का बाहरी प्रमाण मात्र होती हैं। इस दृष्टि से देखने पर, स्वयं परिवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है, जो परम्परा के आवरण में लगातार चलती रहती है। बाहर से अचल दिखनेवाली परम्परा १. लोकभारती प्रकाशन, १५-ए, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद-१ अनेकान्त और स्याद्वाद भी, यदि जड़ता और मृत्यु का पूरा शिकार नहीं बन गयी है, तो धीरे-धीरे वह भी परिवर्तित हो जाती है।" जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में स्याद्वाद का अर्थ इसप्रकार दिया है ह्र "अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी वस्तु का युगपत् कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को । मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता के अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें, उनका निषेध न होने पावे; ह्र इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है।" __कुछ विचारक कहते हैं कि स्यावाद शैली में भी' का प्रयोग है, 'ही' का नहीं। उन्हें 'भी' में समन्वय की सुगंध और 'ही' में हठ की दुर्गन्ध आती है; पर यह उनका बौद्धिक भ्रम ही है। स्यावाद शैली में जितनी आवश्यकता 'भी' के प्रयोग की है, उससे कम आवश्यकता 'ही' के प्रयोग की नहीं। 'भी' और 'ही' का समान महत्त्व है। 'भी' समन्वय की सूचक न होकर ‘अनुक्त' की सत्ता की सूचक है और 'ही' आग्रह की सूचक न होकर दृढ़ता की सूचक है। इनके प्रयोग का एक तरीका है और वह है हू जहाँ अपेक्षा न बताकर मात्र यह कहा जाता है कि 'किसी अपेक्षा वहाँ 'भी' लगाना जरूरी है और जहाँ अपेक्षा स्पष्ट बता दी जाती है, वहाँ 'ही' लगाना अनिवार्य है। जैसे ह्र प्रत्येक वस्तु कथंचित् नित्य भी है और कथंचित् अनित्य भी है। यदि इसी को हम अपेक्षा लगाकर कहेंगे तो इसप्रकार कहना होगा कि प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा नित्य ही है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य ही है। ___ 'भी' का प्रयोग यह बताता है कि हम जो कह रहे हैं, वस्तु मात्र उतनी ही नहीं है, अन्य भी है; किन्तु 'ही' का प्रयोग यह बताता है कि अन्य १. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग ४, पृष्ठ ४९७ २. 'किसी अपेक्षा' के भाव को स्यात् या कथंचित् शब्द प्रकट करते हैं।

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