Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 39
________________ ७६ मैं कौन हूँ? व्यावहारिक जीवन में महावीर के आदर्श भगवान महावीर ने अहिंसा को परमधर्म घोषित किया है। सामाजिक जीवन में विषमता रहते अहिंसा नहीं पनप सकती; अतः अहिंसा के सामाजिक प्रयोग के लिए जीवन में समन्वयवृत्ति, सह-अस्तित्व की भावना एवं सहिष्णुता अति आवश्यक है। उन्होंने जन-साधारण में संभावित शारीरिक हिंसा को कम करने के लिए सह-अस्तित्व, सहिष्णुता और समताभाव पर जोर दिया तो वैचारिक हिंसा से बचने के लिए अनेकांत का समन्वयात्मक दृष्टिकोण भी प्रदान किया। भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादिक उक्त पाँच महान आदर्श यदि हम शक्ति और योग्यतानुसार अपने जीवन में उतार लें, उन्हें व्यावहारिक रूप में अपना लें तो निश्चित रूप से विश्वशांति की दिशा में अग्रसर होंगे। . इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर के भूमिकानुसार आचरण एवं अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण को समझे बिना ही उक्त आक्षेप किया जाता है। जैनाचरण के व्यावहारिक पक्ष को सैद्धान्तिक रूप में चरणानुयोग के शास्त्रों से एवं प्रयोगात्मक रूप में जैनपुराणों के अनुशीलन से भलीभाँति जाना जा सकता है। हिंसादि पापों के त्याग की प्रक्रिया भगवान महावीर के शासन में सप्रयोजन है। जैसे हिंसा चार प्रकार की कही गई है - (1) संकल्पी हिंसा, (2) उद्योगी हिंसा, (3) आरम्भी हिंसा और (4) विरोधी हिंसा। केवल निर्दय परिणाम ही हेतु हैं जिसमें, ऐसे संकल्प (इरादा) पूर्वक किया गया प्राणघात संकल्पी हिंसा है। व्यापार आदि कार्यों में तथा गृहस्थी के आरम्भादि कार्यों में सावधानी बरतते हुए भी जो हिंसा हो जाती है; वह क्रमशः उद्योगी और आरंभी हिंसा है। अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन, समाज-देशादि पर किये गये आक्रमण से रक्षा के लिए अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा विरोधी हिंसा है। उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में एक संकल्पी हिंसा का तो श्रावक सर्वथा त्यागी होता है; किन्तु बाकी तीन प्रकार की हिंसा उसके जीवन में विद्यमान रहती हैं। यद्यपि वह उनसे भी बचने का पूरा-पूरा यत्न करता है, आरंभ और उद्योग में भी पूरी-पूरी सावधानी रखता है; तथापि उसका आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा से पूर्णरूपेण बच पाना संभव नहीं है। यद्यपि उक्त हिंसा उसके जीवन में विद्यमान रहती है; तथापि वह उसे उपादेय नहीं मानता, विधेय भी नहीं मानता। भगवान महावीर ने सदा ही अहिंसात्मक आचरण पर जोर दिया है। जैन आचरण छुआछूतमूलक न होकर जिसमें हिंसा न हो या कम से कम हिंसा हो, के आधार पर निश्चित किया गया है। पानी छानकर काम में लेना, रात्रि में भोजन नहीं करना, मद्य-मांसादि का सेवन नहीं करना आदि समस्त आचरण अहिंसा को लक्ष्य में रखकर अपनाए गए हैं। सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार दो अलग-अलग चीजें हैं। सत्य की प्राप्ति के लिये समस्त जगत से कटकर रहना आवश्यक है। इसके विपरीत सत्य के प्रचार के लिए जन-सम्पर्क जरूरी है। सत्य की प्राप्ति व्यक्तिगत क्रिया है और सत्य का प्रचार सामाजिक प्रक्रिया । सत्य की प्राप्ति के लिए अपने में सिमटना जरूरी है और सत्य के प्रचार के लिए जन-जन तक पहुँचना। साधक की भूमिका और व्यक्तित्व द्वैध होते हैं। जहाँ एक ओर वे आत्म-तत्व की प्राप्ति और तल्लीनता के लिए अन्तरोन्मखी वत्ति वाले होते हैं, वही प्राप्त सत्य को जन-जन तक पहुँचाने के विकल्प से भी वे अलिप्त नहीं रह पाते हैं। उनके व्यक्तित्व की यह द्विविधता जन सामान्य की समझ में सहज नहीं आ पाती। यही कारण है कि कभी-कभी वे उनके प्रति शंकाशील हो उठते हैं। यद्यपि उनकी इस शंका का सही समाधान तो तभी होगा, जबकि वे स्वयं उक्त स्थिति को प्राप्त होंगे; तथापि साधक का जीवन इतना सात्विक होता है कि जगत-जन की वह शंका अविश्वास का स्थान नहीं ले पाती। -सत्य की खोज, पृष्ठ १३५

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