Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 40
________________ धार्मिक सहिष्णुता और तीर्थंकर महावीर सह-अस्तित्व की पहली शर्त है सहिष्णुता । सहिष्णुता के बिना सह-अस्तित्व संभव नहीं है। संसार में अनन्त प्राणी हैं और उन्हें इस लोक में साथ-साथ ही रहना है। यदि हम सबने एक-दूसरे के अस्तित्व को चुनौती दिये बिना रहना नहीं सीखा तो हमें निरन्तर अस्तित्व के संघर्ष जुटे रहना होगा। संघर्ष अशान्ति का कारण है और उसमें हिंसा अनिवार्य है। हिंसा प्रतिहिंसा को जन्म देती है। इसप्रकार हिंसा प्रतिहिंसा का कभी समाप्त न होनेवाला चक्र चलता रहता है। यदि हम शान्ति से रहना चाहते हैं तो हमें दूसरों के अस्तित्व के प्रति सहनशील बनना होगा। सहनशीलता सहिष्णुता का ही पर्यायवाची शब्द है। तीर्थंकर भगवान महावीर ने प्रत्येक वस्तु की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की है और यह भी स्पष्ट किया है कि प्रत्येक वस्तु स्वयं परिणमनशील है; उसके परिणमन में परपदार्थ का कोई हस्तक्षेप नहीं है। यहाँ तक कि परमपिता परमेश्वर भी उसकी सत्ता का कर्त्ता हर्त्ता नहीं है। जन-जन की ही नहीं, अपितु कण-कण की स्वतंत्र सत्ता की उद्घोषणा तीर्थंकर महावीर की वाणी में हुई । दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है; क्योंकि सब जीवों का जीवन-मरण, सुख-दुःख, स्वयंकृत व स्वयंकृत कर्म का फल हैं। एक को दूसरे के दुःख-सुख, जीवन-मरण का कर्त्ता मानना अज्ञान है, सो ही कहा हैसर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय, कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमैतदिह यत्तु परः परस्य, कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।। ' १. समयसार आत्मख्याति टीका का १६८वाँ छन्द 40 धार्मिक सहिष्णुता और भगवान महावीर सब जीवों के जीवन-मरण और सुख-दुःख अपने-अपने कर्मोदयानुसार स्वयं के द्वारा किये गये और सुनिश्चित होते हैं । इसकारण यह मानना अज्ञान ही है कि कोई किसी के जीवन-मरण और सुख-दुःख को करता है। I ७९ यदि एक प्राणी को दूसरे के सुख-दुःख और जीवन-मरण का कर्त्ता माना जाये तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे; क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या हमें सुखी कर सकता है? इसीप्रकार हम अच्छे कार्य करें और कोई व्यक्ति चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता है? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बुरे कार्यों से डरना व्यर्थ हैं; क्योंकि उनके फल को भोगना आवश्यक तो है नहीं? और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगना ही होगा तो फिर पर के हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है । इसी बात को आचार्य अमितगति ने सामायिक पाठ में इसप्रकार व्यक्त किया है स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभं । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा । निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्य मानसः, परो ददातीति विमुच्य शेमुषीं ।। आत्मा के द्वारा पूर्वकृत शुभाशुभकर्मों का फल ही प्राप्त किया जाता है। यदि फल पर के द्वारा दिया जाता है - यह माना जाय तो स्वयंकृत कर्म निरर्थक ही सिद्ध होंगे। वस्तुतः बात यह है कि स्वयं के द्वारा उपार्जित कर्मों को छोड़कर

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