Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 42
________________ धार्मिक सहिष्णुता और भगवान महावीर मैं कौन हूँ? तीर्थंकर महावीर ने जिस सर्वोदय का प्रणयन किया, उसके जिस धर्म तत्त्व को लोक के सामने रखा; उसमें न जाति की सीमा है, न क्षेत्र की और न काल की; न रंग, वर्ण, लिंग आदि की। धर्म में संकीर्णता और सीमा नहीं होती। आत्मधर्म सभी आत्माओं के लिए है। धर्म को मात्र मानव से जोड़ना भी एक प्रकार की संकीर्णता है। वह तो प्राणीमात्र का धर्म है। 'मानव धर्म' शब्द भी पूर्ण उदारता का सूचक नहीं है। वह भी धर्म के क्षेत्र को मानव समाज तक ही सीमित करता है, जबकि धर्म का सम्बन्ध समस्त प्राणी जगत से है; क्योंकि सभी प्राणी सुख और शान्ति से रहना चाहते हैं। धर्म का सर्वोदय स्वरूप तबतक प्राप्त नहीं हो सकता, जबतक कि आग्रह समाप्त नहीं हो जाता; क्योंकि आग्रह विग्रह पैदा करता है, प्राणी को असहिष्णु बना देता है। धार्मिक असहिष्णता से भी विश्व में बहत कलह व रक्तपात हआ है, इतिहास इसका साक्षी है। जब-जब धार्मिक आग्रह सहिष्णुता की सीमा को लांघ जाता है; तब-तब वह अपने प्रचार व प्रसार के लिये हिंसा का आश्रय लेने लगता है। धर्म का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि उसके नाम पर रक्तपात हुए और वह भी उक्त रक्तपात के कारण विश्व में घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा। इसप्रकार जिस धर्म तत्त्व के प्रचार के लिए हिंसा अपनाई गई, वही हिंसा उसके ह्रास का कारण बनी। किसी का मन तलवार की धार से नहीं पलटा जा सकता। अज्ञान ज्ञान से कटता है, उसे हमने तलवार से काटने का यत्न किया। विश्व में नास्तिकता के प्रचार में इसका बहुत बड़ा हाथ है। भगवान महावीर ने उक्त तथ्य को भलीप्रकार समझा था। अतः उन्होंने साध्य की पवित्रता के साथ-साथ साधन की पवित्रता पर भी पूरा-पूरा जोर दिया एवं विचार को अनेकान्तात्मक, भाषा को स्याद्वादरूप, आचार को अहिंसात्मक एवं जीवन को अपरिग्रही बनाने का उपदेश दिया। अनेकान्तात्मक विचार, स्याद्वादरूप वाणी, अहिंसात्मक आचार एवं अपरिग्रही या सीमित परिग्रही जीवन - ये चार महान सिद्धान्त तीर्थंकर महावीर की धार्मिक सहिष्णुता के प्रबल प्रमाण हैं।

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