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मैं कौन हूँ? कहा भी है ह्र
"बहुविध क्रिया कलेश सों, शिव पद लहें न कोय । ज्ञान कला परकाश तें, सहज मोक्ष पद होय ।।' घने सुन्न जो दीजिये, एक अंक नहीं होय ।
त्यों किरिया बिन ज्ञान के, थोथी जानो सोय ।। भगवान की सही रूप में पहिचाने बिना, उनकी उपासना सही अर्थों में नहीं की जा सकती है। अतः सबसे पहिले उपासक को परमात्मा (भगवान) का स्वरूप अच्छी प्रकार समझना चाहिये।
परमात्मा वीतरागी एवं पूर्ण ज्ञानी होता है। अतः उसका उपासक भी पूर्णज्ञान एवं वीतरागता का उपासक होना चाहिये। विषय-कषाय का अभिलाषी व्यक्ति वीतरागी भगवान का उपासक हो ही नहीं सकता। कहाँ तो हम प्रतिदिन बोलते हैं ह्र “इन्द्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ।
रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज पद दीजै।।" और कहाँ विषयादिक की कामना पूर्ति हेतु उपासना करें ह यह कहाँ तक तर्कसंगत है? ___ "गुणेषु अनुरागः भक्तिः ह गुणों में अनुराग को भक्ति कहते हैं।" जबतक हम परमात्मा के गुणों को पहिचानेंगे नहीं, उनके अभिलाषी कैसे होंगे, उनके प्रति हमारा अनुराग भी कैसे होगा? परमात्मा का सच्चा भक्त सिर्फ परमात्मपद चाहता है, अन्यत्र उसकी रुचि नहीं होती। ___ अतः हमें भगवान के उपासक कहलाने के पूर्व एक बार अपनी उपासना प्रवृत्ति की स्थिति पर विचार करना होगा और कारणवश आई हुई इन कुप्रवृत्तियों को अपनी उपासनापद्धति से अलग करना होगा। ___यदि हम सामाजिक स्तर पर उन वीतरागता विरोधी प्रवृत्तियों को नहीं हटा सकते तो इनसे अपने आपको तो बचा ही सकते हैं।
भगवान महावीर और उनकी उपासना
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि भगवान की भक्ति से क्या लौकिक सुख भी नहीं मिलता है?
बात यह है कि वीतरागता के उपासक ज्ञानी भक्त की लौकिक सुख में रुचि ही नहीं होती, पर शुभभाव होने से पुण्य बंध अवश्य होता है और तदनुकूल सुख (भोग) सामग्री भी प्राप्त होती है, पर भगवान महावीर के उपासक की दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं तथा विषयाभिलाषा से की गई भगवान की भक्ति, राग की तीव्रता और भोगों की अभिलाषा से युक्त होने से पुण्य बंध का कारण भी नहीं होती; क्योंकि भोगाभिलाषा एवं रागभाव तो पापभाव हैं।
उक्त सम्पूर्ण बात कहने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि आप भगवान महावीर की उपासना करना ही छोड़ दें; बल्कि मैं चाहता हूँ कि आप भगवान महावीर के सच्चे अर्थों में उपासक बनें, उनके स्वरूप को समझें व उनकी उपासना के हेतु को समझकर सही रूप दें।
जब वीतरागता और आत्मज्ञान की पूर्णता ही हमारा प्राप्तव्य बनेगा; तभी हम वीतरागी, सर्वज्ञ भगवान महावीर के सच्चे उपासक कहलाने के अधिकारी होंगे।
विश्वविख्यात समस्त दर्शनों में जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जो निज भगवान आत्मा की आराधना को धर्म कहता है; स्वयं के दर्शन को सम्यग्दर्शन, स्वयं के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और स्वयं के ध्यान को सम्यक्चारित्र कहकर इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ही वास्तविक धर्म घोषित करता है।
ईश्वर की गुलामी से भी मुक्त करने वाला अनन्त स्वतंत्रता का उद्घोषक यह दर्शन प्रत्येक आत्मा को सर्वप्रभुतासम्पन्न परमात्मा घोषित करता है और उस परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी स्वावलम्बन को ही बताता है। -बारहभावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ १६५
१. समयसार नाटक, निर्जरा द्वार, छन्द २६ २. आलोचना पाठ, छन्द ३३