Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 35
________________ मैं कौन हूँ ? अनेकान्तात्मक विचार, स्याद्वादरूप वाणी, अहिंसात्मक आचार एवं अपरिग्रही या सीमित परिग्रही जीवन- ये चार महान सिद्धान्त तीर्थंकर महावीर की धार्मिक सहिष्णुता के प्रबल प्रमाण हैं । ६८ तीर्थंकर भगवान महावीर ने प्रत्येक वस्तु की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की है और यह भी स्पष्ट किया है कि प्रत्येक वस्तु स्वयं परिणमनशील है। उसके परिणमन में पर-पदार्थ का कोई हस्तक्षेप नहीं है। यहाँ तक कि परमपिता परमेश्वर (भगवान्) भी उसकी सत्ता का कर्त्ता हर्त्ता नहीं है । जन-जन की ही नहीं, अपितु कण-कण की स्वतंत्र सत्ता की उद्घोषणा तीर्थंकर महावीर की वाणी में हुई। दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है; क्योंकि सब जीवों का जीवन-मरण, सुख-दुःख स्वयंकृत व स्वयंकृत कर्म का फल है। एक को दूसरे के दुःख-सुख, जीवन-मरण का कर्त्ता मानना अज्ञान है। उन्होंने व्यक्तिस्वातंत्र्य और विचारों की स्वतंत्रता पर सर्वत्र जोर दिया है। वे अपने पीछे अन्धविश्वासियों की भीड़ इकट्ठी कर पोपड़म का प्रचार नहीं करना चाहते थे। उन्होंने तो विचारकों को चिन्तन की नई दिशा दी है। उन्होंने स्पष्ट कहा - “जो मैं कहता हूँ, उसे तर्क की कसौटी पर कसकर और अनुभूति से आत्मसात् करके ही स्वीकार करो, अन्यथा यह सत्य तुम्हारा न बन पायेगा। आगमप्रमाणरूप चाबुक की मार से, तर्कों के प्रबल प्रहार से और मेरे अद्भुत व्यक्तित्व के प्रभाव से जो मैंने कहा उसे यदि ऊपर से स्वीकार भी कर लिया तो कोई लाभ नहीं होगा। वह तो एक नये अन्धविश्वास और पोपड़म को ही जन्म देगा ।" इसप्रकार उनका उपदेश सार्वभौमिक और विश्व शांति की ओर ले जाने वाला है। 35 तीर्थंकर भगवान महावीर ६९ यदि आज महावीर के सर्वोदयी अनेकान्तात्मक विचार, सब पक्षों को अपने में समाहित कर लेने वाली स्याद्वाद वाणी, अहिंसायुक्त आचरण और सीमित-संग्रह से युक्त जीवनवृत्ति हमारे सामाजिक जीवन का आधार व अंग बन जाए तो हमारी बहुत कुछ समस्याएँ सहज सुलझ सकती हैं। हम आत्म-शान्ति के साथ-साथ विश्व शान्ति की दिशा में भी सहज ही अग्रसर हो सकते हैं। अन्त में 72 वर्ष की आयु में दीपावली के दिन इस युग के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने भौतिक देह को त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया। उसी दिन उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम को पूर्णज्ञान (केवलज्ञान) की प्राप्ति हुई । जैन मान्यतानुसार दीपावली महापर्व भगवान के महावीर के निर्वाण एवं उनके प्रमुख शिष्य गौतम को पूर्णज्ञान की प्राप्ति के उपलक्ष्य में ही मनाया जाता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर का जीवन नर से नारायण बनने एवं आत्मा के क्रमिक पूर्ण विकास की कहानी है। निजात्मा के प्रति अरुचि ही उसके प्रति अनन्त क्रोध है। जिसके प्रति हमारे हृदय में अरुचि होती है, उसकी उपेक्षा हमसे सहज ही होती रहती है। अपनी आत्मा को क्षमा करने और क्षमा माँगने का मात्र आशय यही है कि हम उसे जानें, पहिचानें और उसी में रम जायें। स्वयं को क्षमा करने और स्वयं से क्षमा माँगने के लिए वाणी की औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है। निश्चयक्षमावाणी तो स्वयं के प्रति सजग हो जाना ही है। उसमें पर की अपेक्षा नहीं रहती तथा आत्मा के आश्रय से क्रोधादिकषायों के उपशान्त हो जाने से व्यवहारक्षमावाणी भी सहज ही प्रस्फुटित होती है। ह्न धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ- १९८५

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