Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 36
________________ भगवान महावीर और उनकी उपासना जो पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ पद को प्राप्त करता है; वह भगवान (परमात्मा) कहलाता है। अरहंत और सिद्ध ही ऐसे पद हैं। अतः उक्त पदों को प्राप्त पुरुष ही परमात्मा (भगवान) शब्द से अभिहित किये जाते हैं। अरहंतों में तीर्थंकर अरहंत और सामान्य अरहन्त ऐसे दो प्रकार होते हैं। वर्तमान काल में धर्मतीर्थ के प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर अरहंत भगवान महावीर थे। भगवान महावीर के अनुसार परमात्मा पर का कर्ता-धर्ता न होकर मात्र ज्ञाता-दृष्टा होता है तथा परमात्मा के उपासक (भक्त) की दृष्टि (मान्यता) में पर में कर्तृत्वबुद्धि नहीं होती। जबतक पर में फेरफार करने की बुद्धि (रुचि) रहेगी; तबतक उसकी दृष्टि को सम्यक् दृष्टि नहीं कहा जा सकता है। वीतरागी परमात्मा का उपासक (भक्त) भी वीतरागता का ही उपासक होता है। लौकिक सुख (भोग) की आकांक्षा से परमात्मा की उपासना करने वाला व्यक्ति वीतरागी भगवान महावीर का उपासक नहीं हो सकता। __वह तो मात्र पंथव्यामोह से ही महावीर की उपासना करता है; वस्तुतः वह भगवान का उपासक न होकर भोगों का ही उपासक है। भगवान का सच्चा स्वरूप न समझ पाने के कारण आज की उपासना में अनेक विकृतियाँ आ गई हैं। अब हम मूर्तियों में वीतरागता न देखकर चमत्कार देखने लगे हैं और चमत्कार को नमस्कार की लोकोक्ति के अनुसार जिस मूर्ति और जिस मन्दिर के साथ चमत्कारिक कथायें जुड़ी पाते हैं; उन मूर्तियों के समक्ष और उन मन्दिरों में भक्तों की भीड़ अधिकाधिक दिखाई देती है। जिनके साथ लौकिक समृद्धि, संतानादि की प्राप्ति की कल्पनायें प्रसारित हैं; वहाँ तो खड़े होने को स्थान तक नहीं मिलता और शेष मन्दिर खंडहर होते जा रहे हैं; वहाँ की मूर्तियों की धूल साफ करने वाला भी दिखाई नहीं देता। भगवान महावीर और उनकी उपासना एक भगवान महावीर की हजारों मूर्तियाँ हैं और उन सब मूर्तियों के माध्यम से हम महावीर की पूजा करते हैं। पृथक्-पृथक् मन्दिरों में पृथक्पृथक् मूर्तियों के माध्यम से पूजे जाने वाले महावीर पृथक्-पृथक् नहीं हैं, वरन् एक हैं। भगवान महावीर अपनी वीतरागता एवं सर्वज्ञता के कारण पूज्य हैं; कोई लौकिक चमत्कारों और संतान, धनादि देने के कारण नहीं। ___जो महान् आत्मा स्वयं धनादि और घरबार छोड़कर आत्मसाधनारत हुआ हो; उससे ही धनादिक की चाह करना कितना हास्यास्पद है! उनको भोगादि का देने वाला कहना, उनकी वीतरागता की मूर्ति को खंडित करना है। एक तो महावीर प्रसन्न होकर किसी को कुछ देते नहीं हैं और न अप्रसन्न होकर किसी का बिगाड़ ही करते हैं, दूसरे यदि भोले जीवों की कल्पनानुसार उन्हें सुख-दुःख देने-लेने वाला भी मान लिया जाय तो भी यह समझ में नहीं आता कि वे अपनी अमुक मूर्ति की पूजा के माध्यम से ही कुछ देते हों, अन्य की पूजा के माध्यम से नहीं। यदि यह कहा जाय कि वे तो कुछ नहीं देते पर उनके उपासक को सहज ही पुण्य-बंध होता है तो क्या अमुक मूर्ति के सामने पूजा करने से या अमुक मन्दिर में घृतादिक के दीपक रखने से ही पुण्य बंधेगा, अन्य मन्दिरों में या अन्य मूर्तियों के सामने नहीं? उक्त प्रवृत्ति के कारण हमारी दृष्टि, मूर्ति के माध्यम से जिसकी पूजा की जाती है, उस महावीर से हटकर मात्र मूर्ति पर केन्द्रित हो गई है और हम यह भूलते जा रहे हैं कि वस्तुतः हम मूर्ति के नहीं, मूर्ति के माध्यम से मूर्तिमान (वीतरागी सर्वज्ञ भगवान) के पुजारी हैं। ___ यह सब क्यों और कैसे हुआ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। जब ज्ञान की अपेक्षा क्रियाकांड को मुख्यता दी जाने लगती है; तब इसप्रकार की प्रक्रिया उत्पन्न होने लगती है। यही कारण है कि भगवान महावीर ने चारित्र को सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही कहा है। अज्ञानपूर्वक की गई कोई भी प्रक्रिया धर्म नहीं कहला सकती।

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