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मैं कौन हूँ ?
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उद्योगी आरंभी हिंसा है। अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन, समाज, देशादि पर किये गए आक्रमण से रक्षा के लिए अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा विरोधी हिंसा है। उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में एक संकल्पी हिंसा का तो श्रावक सर्वथा त्यागी होता है; किन्तु बाकी तीन प्रकार की हिंसा उसके जीवन में विद्यमान रहती है।
यद्यपि वह उनसे भी बचने का पूरा पूरा यत्न करता है, आरम्भ और उद्योग में भी पूरी पूरी सावधानी रखता है; तथापि उसका आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा से पूर्णरूपेण बच जाना सम्भव नहीं है।
यद्यपि उक्त हिंसा उसके जीवन में विद्यमान रहती है; तथापि वह उसे उपादेय नहीं मानता, विधेय भी नहीं मानता। मुक्ति के मार्ग के पथिक का व्यक्तित्व द्वैध व्यक्तित्व होता है। उसकी श्रद्दा तो पूर्ण अहिंसक होती है। और जीवन भूमिकानुसार ।
कोई व्यक्ति अपने जीवन में अहिंसा को कितना उतार पाता है, कितना नहीं ह्न यह एक अलग प्रश्न है और हिंसा और अहिंसा का वास्तविक स्वरूप क्या है ह्न यह एक स्वतंत्र विचारणीय वस्तु है । इस तथ्य को विचारकों को नहीं भूलना चाहिए।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि राग-द्वेष-मोह भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और उन्हें धर्म मानना महाहिंसा है तथा रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही परम अहिंसा है और रागादि भावों को धर्म नहीं मानना ही अहिंसा के सम्बन्ध में सच्ची समझ है। यही जिनागम का सार है।
सर्वाधिक द्रव्य - हिंसा युद्धों में होती है। अधिकांश युद्ध जर (धन सम्पदा), जोरू (स्त्री) और जमीन के लिए होते हैं। रामायण और महाभारत के युद्ध इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं। जर, जोरी और जमीन के प्रति राग होने के कारण युद्ध होते हैं: द्वेष होने के कारण नहीं। अतः द्वेष से भी अधिक हिंसा का कारण राग है। यही कारण है कि जिनागम में राग भाव को भी हिंसा कहा गया है।
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अनेकान्त और स्याद्वाद
वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। प्रत्येक वस्तु अनेक गुण-धर्मों से युक्त है । अनन्त धर्मात्मक वस्तु ही अनेकान्त है और वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को समझानेवाली सापेक्ष कथनपद्धति को स्याद्वाद कहते हैं । " अनेकान्त और स्याद्वाद में द्योत्य- द्योतक सम्बन्ध है ।
समयसार की आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट में आचार्य अमृतचन्द्र इस सम्बन्ध में लिखते हैं ह्न
"स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करनेवाला अर्हन्त सर्वज्ञ का अस्खलित (निर्बाध ) शासन है । वह (स्याद्वाद ) कहता है कि अनेकान्त स्वभाववाली होने से सब वस्तुएँ अनेकान्तात्मक हैं।.......
वस्तुत है, वही तत् है; जो एक है, वही अनेक है; जो सत् है, वही असत् है; जो नित्य है, वही अनित्य है; ह्न इसप्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उत्पादक परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। "
अनेकान्त शब्द 'अनेक' और 'अन्त' ह्न इन दो शब्दों से मिलकर बना है। अनेक का अर्थ होता है ह्र एक से अधिक । एक से अधिक दो भी हो सकते हैं और अनन्त भी दो और अनन्त के बीच में अनेक के अनेक अर्थ सम्भव हैं तथा अन्त का अर्थ होता है धर्म अथवा गुण ।
प्रत्येक वस्तु में अनन्त गुण विद्यमान हैं; अतः जहाँ अनेक का अर्थ १. अनेकान्तात्मकार्यकथनं स्याद्वादः । ह्र लघीयस्त्रय टीका
२. स्याद्वादो हि समस्तवस्तुतत्त्वसाधकमेकमस्खलितं शासनमर्हत्सर्वज्ञस्य । स तु सर्वमनेकांतात्मकमित्यनुशास्ति, तत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशमनेकान्तः ।