Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ ६० मैं कौन हूँ ? माँ वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की पुत्री थीं। वे आज से 2600 वर्ष पूर्व (599ई. पूर्व ) चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन नाथ (ज्ञातृ) वंशीय क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। उनके माता-पिता ने उनको नित्य वृद्धिंगत होते देख उनका नाम वर्द्धमान रखा । बालक वर्द्धमान जन्म से ही स्वस्थ, सुन्दर एवं आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। वे दोज के चन्द्रमा की भाँति वृद्धिंगत होते हुए अपने वर्द्धमान नाम को सार्थक करने लगे। उनके रूप-सौन्दर्य का पान करने के लिए सुरपति (इन्द्र) ने हजार नेत्र बनाये थे । वे आत्मज्ञानी, विचारवान्, विवेकी और निर्भीक बालक थे। तो उन्होंने सीखा ही न था । वे साहस के पुतले थे। अतः उन्हें बचपन से ही वीर, अतिवीर कहा जाने लगा था । आत्मज्ञानी होने से उन्हें सन्मति भी कहा जाता था। उनके पाँच नाम प्रसिद्ध हैं- वीर, अतिवीर, सन्मति, वर्द्धमान और महावीर । वे प्रत्युत्पन्नमति थे और विपत्तियों में अपना सन्तुलन नहीं खोते थे । एक दिन बालक वर्द्धमान अन्य राजकुमारों के साथ क्रीड़ावन में खेल रहे थे। इतने में ही एक भयंकर काला सर्प आया और क्रोधावेश में वीरों को भी कंपित कर देनेवाली फुंकार करने लगा। अपने को विषम स्थिति में पाकर अन्य बालक तो भय से कांपने लगे पर धीर-वीर बालक वर्द्धमान को वह भयंकर नागराज विचलित न कर सका। महावीर को अपनी ओर निर्भय और निःशंक आता देख नागराज निर्मद होकर स्वयं अपने रास्ते चलता बना। इसीप्रकार एक बार एक हाथी मदोन्मत्त हो गया और गजशाला के स्तम्भ को तोड़कर नगर में विप्लव मचाने लगा। सारे नगर में खलबली मच गई। सभी लोग घबड़ा कर यहाँ वहाँ भागने लगे, पर राजकुमार वर्द्धमान ने अपना धैर्य नहीं खोया तथा शक्ति और युक्ति से शीघ्र ही गजराज पर काबू पा लिया। राजकुमार वर्द्धमान की वीरता व धैर्य की 31 तीर्थंकर भगवान महावीर चर्चा नगर में सर्वत्र होने लगी। वे प्रतिभासम्पन्न राजकुमार थे। बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान चुटकियों में कर दिया करते थे । वे शान्त प्रकृति के तो थे ही, युवावस्था में प्रवेश करते ही उनकी गंभीरता और बढ गई; वे अत्यन्त एकान्तप्रिय हो गये। वे निरंतर चिन्तवन में ही लगे रहते थे और गूढ तत्त्वचर्चाएँ किया करते थे । तत्त्व-संबंधी बड़ी से बड़ी शंकाएँ तत्त्व - जिज्ञासु उनसे करते थे और बातों ही बातों में वे उनका समाधान कर देते थे। ६१ बहुत-सी शंकाओं का समाधान तो उनकी सौम्य आकृति ही कर देती थी। बड़े-बड़े ऋषिगणों की शंकाएँ भी उनके दर्शनमात्र से ही शांत हो जाती थीं। वे शंकाओं का समाधान न करते थे, वरन् स्वयं समाधान थे । एक दिन वे राजमहल की चौथी मंजिल पर एकान्त में विचार - मग्न बैठे थे। उनके बाल - साथी उनसे मिलने को आए और माँ त्रिशला से पूछने लगे – “वर्द्धमान कहाँ है?" गृहकार्य में संलग्न माँ ने सहज ही कह दिया- "ऊपर " सब बालक ऊपर को दौड़े और हाँफते हुए सातवीं मंजिल पर पहुँचे, पर वहाँ वर्द्धमान को न पाया। जब उन्होंने स्वाध्याय में संलग्न राजा सिद्धार्थ से वर्द्धमान के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने बिना गर्दन उठाये ही कह दिया- "नीचे।" माँ और पिता के परस्पर विरुद्ध कथनों को सुनकर बालक असमंजस में पड़ गए। अन्ततः उन्होंने एक-एक मंजिल खोजना आरम्भ किया और चौथी मंजिल पर वर्द्धमान को विचारमग्न बैठे पाया । - सब साथियों ने उलाहने के स्वर में कहा – “तुम यहाँ छिपे-छिपे दार्शनिकों की सी मुद्रा में बैठे हो और हमने सातों मंजिलें छान डालीं ।" "माँ से क्यों नहीं पूछा?" वर्द्धमान ने सहज प्रश्न किया। साथी बोले, “पूछने से ही तो सब कुछ गड़बड़ हुआ। माँ कहती हैं

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