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मैं कौन हूँ ? ही श्रावक के सप्तशीलव्रत भी कहे गए हैं। जिनमें तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। उनकी भी स्थिति यही है। जब तक कोई गृहस्थ है, तब तक तत्सम्बन्धी व्यवहार व्यापारादि भी सम्भव हैं; किन्तु उसकी भावना निरन्तर उनसे मुक्त होने की रहती है। उक्त भावना की सिद्धि हेतु वह अपनी बाह्य परिणति को और भी सीमित करता है। वह मर्यादा में मर्यादा बनाता चला जाता है। उक्त प्रक्रिया को ही गुणव्रत कहते हैं जो तीन प्रकार के होते हैं - (1) दिव्रत (2) देशव्रत (3) अनर्थदण्डव्रत ।
कषायांश कम हो जाने के कारण अपने जीवन को नियमित करने के आकांक्षी ज्ञानी श्रावक का जीवन भर के लिए दशों दिशाओं के प्रसिद्ध स्थानों के आधार पर सीमा निश्चित कर लेना और जीवन पर्यन्त उस सीमा के बाहर नहीं जाना ही दिव्रत है; तथा दिव्रत में की हुई सीमा में घड़ी-घण्टा, दिन, सप्ताह, माह, वर्षादि काल की सीमापूर्वक (दिव्रत में की हुई विशाल क्षेत्र सम्बन्धी सीमा में) और भी कमी कर लेना ही देशव्रत है - जैसे मैं एक वर्ष तक राजस्थान के, एक माह तक जयपुर के, एक दिन तक अपने मकान या मन्दिर के बाहर नहीं जाऊँगा ।
बिना प्रयोजन हिंसादि पापों में प्रवृत्ति करने को अनर्थदण्ड कहते हैं और उस प्रवृत्ति के त्यागरूप भाव को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं।
इसप्रकार उक्त तीन गुणव्रत अणुव्रतों की अभिवृद्धि में सहायक हैं। आत्मस्वभाव की स्थिरता प्राप्ति हेतु शिक्षारूप शिक्षाव्रत हैं, जो चार प्रकार के हैं- (1) सामायिक (2) प्रोषधोपवास (3) भोगोपभोग परिमाणव्रत (4) अतिथिसंविभाग ।
सम्पूर्ण द्रव्यों में राग-द्वेष छोड़कर समत्व भाव का आलम्बन करके आत्मतत्त्व की प्राप्ति करना ही सामायिक है। समय शब्द का अर्थ यहाँ आत्मा है; अतः आत्मलीनता का नाम ही सामायिक है। ज्ञानी श्रावक आत्मज्ञानी एवं आत्मरुचि वाला होने से दिन में प्रातः, दोपहर और सायं को करीब एक घण्टे आत्मचिन्तन अवश्य करता है । इसे ही सामायिक शिक्षाव्रत कहते हैं।
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श्रावक की जीवनधारा
आत्मस्वभाव के समीप ठहरना यानी आत्मलीनता ही वास्तविक उपवास ( उप= समीप, वास = ठहरना) है। इसे निषेधात्मक विधि से यों भी कह सकते हैं कि कषाय, विषय और आहार के त्याग का नाम उपवास है। प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को सर्वारंभ छोड़कर उपवास करना ही प्रोषधोपवास कहलाता है।
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प्रयोजनभूत सीमित परिग्रह के भीतर भी कषाय कम करके भोग और उपभोग सामग्री का परिमाण (मात्रा) घटाना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है। पंचेन्द्रिय के विषय में जो एक बार भोगने में आवे उसे भोग और जो बार-बार भोगने में आवे उसे उपभोग कहते हैं ।
मुनि, व्रतीश्रावक व अव्रती श्रावक इन तीन प्रकार के पात्रों को अपने लिए बनाए गए पवित्र भोजन में से विभाग करके विधिपूर्वक दान देना अतिथि संविभागव्रत है ।
उक्त 12 व्रतों को निरतिचार पालन करने वाला ही व्रती श्रावक कहलाता है।
उक्त व्रतों में आस्था होने पर तथा इनके पालन में प्रयत्नशील रहने पर भी जो इन्हें निरतिचार (निर्दोष) पालन नहीं कर पाते हैं, उन्हें अव्रतीश्रावक कहते हैं ।
ज्ञानीश्रावक की स्थिति अस्थाई युद्धविराम जैसी स्थिति है । उसके अन्तर में निरन्तर राग और विराग का एक प्रकार का अन्दर्द्वन्द्व चलता रहता है। उसमें राग के प्रबल होते ही वह अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है और विराग पक्ष के सबल होने की स्थिति में भोगों का सर्वथा त्यागी मुनि बन जाता है।
इस तरह देखा जाय तो श्रावक की स्थिति न तो भोगी की है और न वह पूर्णतः त्यागी की ही है। वह भोग और त्याग की विचित्र अर्न्तभूमिका में विचरण करने वाला साधक आत्मा है।