Book Title: Sukh kya Hai
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ ४८ मैं कौन हूँ? ___ अनेकान्त और स्याद्वाद सिद्धान्त इतना गूढ़ व गम्भीर है कि इसे गइराई से और सूक्ष्मता से समझे बिना इसकी तह तक पहुँचना असम्भव है; क्योंकि ऊपर-ऊपर से देखने पर यह एकदम गलत-सा प्रतीत होता है। ___इस संबंध में हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी के दर्शनशास्त्र के भूतपूर्व प्रधानाध्यापक श्री फणिभूषण अधिकारी ने लिखा है ह्र "जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है; उतना किसी अन्य सिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं, उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है। ___ यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी; किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान् के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा। यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शन-शास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की।" हिन्दी के प्रसिद्ध समालोचक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी लिखते हैंह्न __ "प्राचीन दर्जे के हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का स्याद्वाद किस चिड़िया का नाम है।" श्री महामहोपाध्याय सत्यसम्प्रदायाचार्य पण्डित स्वामी राममिश्रजी शास्त्री, प्रोफेसर, संस्कृत कॉलेज, वाराणसी लिखते हैं ह्र ___मैं कहाँ तक कहूँ, बड़े-बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जैनमत का खण्डन किया है; वह ऐसा किया है, जिसे सुन-देख हंसी आती है। स्यावाद यह जैनधर्म का अभेद्य किला है: उसके अन्दर वादीप्रतिवादियों के मायामयी गोले नहीं प्रवेश कर सकते । जैनधर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस स्याद्वाद से सर्वसत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" १. तीर्थंकर वर्द्धमान, पृष्ठ ९२ श्री वी.नि.ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर २. वही, पृष्ठ ९२ वही ३. वही, पृष्ठ ९२ वही अनेकान्त और स्याद्वाद संस्कृत के उद्भट विद्वान् डॉ. गंगानाथ झा के विचार भी दृष्टव्य हैं ह्र "जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैनसिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है; तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा और जो कुछ अबतक मैं जैनधर्म को जान सका हूँ; उससे मेरा दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्म को उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।" ___ 'स्यात्' पद का ठीक-ठीक अर्थ समझना अत्यन्त आवश्यक है। इसके संबंध में बहुत भ्रम प्रचलित हैं। कोई स्यात् का अर्थ संशय करते हैं, कोई शायद, तो कोई सम्भावना। इसतरह वे स्याद्वाद को शायदवाद, संशयवाद या सम्भावनावाद बना देते हैं। स्यात्' शब्द 'तिङ्न्त' न होकर 'निपात' है। वह सन्देह का वाचक न होकर एक निश्चित अपेक्षा का वाचक है। 'स्यात्' शब्द को स्पष्ट करते हुए तार्किकचूड़ामणि आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं ह्र "वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यं प्रति विशेषणं । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात् तवकेवलिनामपि ॥' 'स्यात्' शब्द निपात है। वाक्यों में प्रमुख यह शब्द अनेकान्त का द्योतक वस्तुस्वरूप का विशेषण है।" शायद, संशय और सम्भावना में एक अनिश्चय है। अनिश्चय अज्ञान का सूचक है। स्याद्वाद में कहीं भी अज्ञान की झलक नहीं है। वह जो कुछ कहता है, दृढ़ता के साथ कहता है; वह कल्पना नहीं करता, सम्भावनाएँ व्यक्त नहीं करता। श्री वी.नि.ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर १. तीर्थंकर वर्द्धमान, पृष्ठ ९४ २. आप्तमीमांसा, श्लोक १०३

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