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आत्मानुभवी पुरुष : अंतर्बाह्य दशा
तत्त्वविचार किसे कहते हैं और आत्मानुभूति क्या है तथा वह कैसे प्राप्त की जा सकती है ? आदि विषय पूर्व निबंधों में स्पष्ट किए जा चुके हैं। यहाँ तो विचारणीय विषय यह है कि आत्मानुभूति प्राप्त पुरुष (आत्मा) की अन्तर्बाह्य परिणति कैसी होती है ?
आत्मानुभूति प्राप्त पुरुषों की अन्तर्परिणति अनुभूति के काल में अत्यन्त शांत एवं ज्ञानानंदमय होती है । दृष्टि के अंतर्मुख होते ही समस्त शुभाशुभ विकल्पजाल प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं। अन्तर में निर्विकल्पक अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमड़ता है कि समाता ही नहीं । वे आत्मानन्द में मग्न हो जाते हैं।
उनका ज्ञान अन्तरोन्मुखी होने से एवं आनंद पंचेन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न हुआ न होने से अतीन्द्रिय व स्वाश्रित होता है।
वह ज्ञानानन्द की दशा ऐसी होती है कि बाहर की अनन्त प्रतिकूलताएँ और अनुकूलताएँ उसे भग्न नहीं कर सकतीं। उन्हें उनकी खबर ही नहीं पड़ती। वे तो अपने में ऐसे मग्न हो जाते हैं कि लोक की कोई भी घटना उनके आनन्द सागर में भँवर पैदा नहीं कर सकती। उनका वह आनन्द सिद्धों के आनन्द के समान ही है। यद्यपि अभी उसमें अपूर्णता है, सिद्धों के आनन्द का अनंतवाँ भाग ही है; तथापि है उसी जाति का ।
आत्मानुभूति के काल के पश्चात् अन्य समय में भी उन्हें उसकी खुमारी सदा बनी रहती है; क्योंकि अन्य समय में भी भूमिकानुसार शुद्ध परिणति का अंश एवं लब्धिरूप से शुद्धात्मानुभूति पाई जाती है। परिपूर्ण निज आत्मा का रस (स्वाद) चख लेने पर जगत के समस्त रस फीके हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय के विषयों की रुचि हट जाती है। जगत के समस्त बाह्य क्रिया-कलापों और दौड़-धूप से विरक्ति हो जाती है। दुःख का घर यह संसार, इसके प्रति कौतूहल का भाव समाप्त हो जाता है और मन में
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आत्मानुभूति पुरुष : अंतर्बाह्य दशा
उठनेवाली राग-द्वेष की कल्पनाएँ भी मंद पड़ने लगती हैं।
उनकी दशा जगत के जीवों को कुछ अटपटी सी लगती हैं; क्योंकि (पुण्य के फल) अतुल भोग-सामग्री के बीच रहकर भी उनके अन्तर में लौकिक सम्पदा को कोई स्थान प्राप्त नहीं होता है। भय और लालच उनके सामने कोई महत्त्व नहीं रखते। लौकिक मान-सम्मान का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं होता । आत्मानुभूति प्राप्त पुरुषों के चित्त को वर्तमान आपत्तियाँ और सम्पत्तियाँ विचलित नहीं कर पाती हैं।
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लौकिक घटनाएँ उन्हें आंदोलित नहीं करतीं, वे मात्र उन्हें जानते हैं, वे उनके ज्ञान का मात्र ज्ञेय बनकर रह जाती हैं। भूमिकानुसार कमजोरी के कारण किंचित् राग-द्वेष उत्पन्न भी हो जावें तो वे उसे भी ज्ञान का ज्ञेय बना लेते हैं। वे समस्त पर-पदार्थों को, यहाँ तक कि अपनी परिणति को भी, मात्र जानते-देखते हुए प्रवर्तते हैं।
उनका हृदय सागर के समान गंभीर हो जाता है। जिसप्रकार सागर बरसाती बाढ से युक्त अनेक नदियों के एक साथ आकर गिरने पर भी आंदोलित नहीं होता; उसीप्रकार इष्ट-अनिष्ट लगनेवाले जगत के अनेकों परिवर्तन भी ज्ञानी आत्मा को आंदोलित नहीं कर पाते तथा जिसप्रकार समुद्र अपनी मर्यादा को नहीं उलांघता; उसीप्रकार वे भी अपनी ज्ञानस्वभाव की सीमा का कभी उल्लंघन नहीं करते।
असीम निशंकता, भोगों के प्रति अनासक्ति, समस्त पदार्थों की विकृत - अविकृत दशाओं में समता भाव, वस्तुस्वरूप की पैनी पकड़, पर के दोषों के प्रति उपेक्षा भाव, आत्मशुद्धि की वृद्धिंगत दशा, विश्वासों की दृढता, परिणामों की स्थिरता, गुण और गुणियों में अनुराग, आत्मलीनता द्वारा अपनी और उपदेशादि द्वारा वस्तुतत्त्व की प्रभावना उनकी अपनी विशेषताएँ हैं।
उनका चित्त चंदन के समान शीतल (शान्त) हो जाता है। उनमें दीनता नहीं रहती, वे विषयों के भिखारी नहीं होते। वे अपने लक्ष्य (आत्मा) को प्राप्त कर लेने से सच्चे लक्षपति ( लखपति) होते हैं। साथ