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अहिंसा
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मैं कौन हूँ? आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीवदं कदं तेसिं ।।२५१ ।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण दिति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।।२५२ ।। मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारे अन्य जन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन! ।।२४७।। निज आयु क्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं? ॥२४८।। निज आयु क्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ? ||२४९ ।। मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन !||२५०।। सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किस तरह जब आयु दे सकते नहीं ? ||२५१।। सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही।
कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं ? ||२५२ ।। जो यह मानता है कि मैं पर-जीवों को मारता हूँ और पर-जीव मुझे मारते हैं; वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है।
जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तुम परजीवों के आयुकर्म को तो हरते नहीं हो फिर तुमने उनका मरण कैसे किया?
जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। पर-जीव तेरे आयुकर्म को तो हरते नहीं हैं तो उन्होंने तेरा मरण कैसे किया?
जो जीव यह मानता है कि मैं पर-जीवों को जिलाता (रक्षा करता) हूँ और पर-जीव मुझे जिलाते (रक्षा करते) हैं; वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है।
जीव आयुकर्म के उदय से जीता है, ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है। तुम पर-जीवों को आयुकर्म तो नहीं देते तो तुमने उनका जीवन (रक्षा) कैसे किया? ___ जीव आयुकर्म के उदय से जीता है, ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। परजीव तुझे आयुकर्म तो देते नहीं हैं तो उन्होंने तेरा जीवन (रक्षा) कैसे किया?" उक्त कथन का निष्कर्ष देते हुए अन्त में वे लिखते हैं ह्र "जो मरदिजो य दुहिदो जायदि कम्मोदयेण सोसव्वो। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५७ ।। जोण मरदिण य दुहिदो सो वि य कम्मोदयेण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५८ ।।
जो मरे या जो दुःखी हों वे सब करम के उदय से। 'मैं दुःखी करता-मारता-यह बात क्यों मिथ्या न हो? ||२५७।। जो ना मरे या दुःखी ना हो सब करम के उदय से।
'ना दुःखी करता मारता'-यह बात क्यों मिथ्या न हो ? ||२५८ ।। जो मरता है और जो दुःखी होता है, वह सब कर्मोदय से होता है; अतः 'मैंने मारा, मैंने दुःखी किया' ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है? अवश्य ही मिथ्या है। और जो न मरता है और न दुःखी होता है, वह भी वास्तव में कर्मोदय से ही होता है। अतः 'मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया' ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है? अवश्य ही मिथ्या है।"
उक्त संपूर्ण कथन को आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की आत्मख्याति टीका में दो छन्दों में निम्नानुसार अभिव्यक्त किया है ह्र सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय ह्न
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।।१६८ ।।