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सूत्र - विभाग – ३० 'तैीस बोन' 'विस्तृत प्रतिक्रमण' [ १७१
देिवीरण आसायरणाए : देवियो की आशातना की हो इहलोगस्स सायरणाए : इस लोक की आशातना की हो परलोगरस सायपाए : परलोक की आशातना की हो : केवली प्ररूपित धर्म की प्राशातना की हो
केवलि पप्रपत्तस्स
धम्मस्स श्रासादखाए
सदेव मणुयासुरस्स लोगरस श्रसारणाए सव्व - पारण-सूय-जीव सत्त र प्रसारणाए
कालस्स श्रासायारणाए
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: देव मनुष्य असुर सहित सारे लोक की शातना की हो ।
: सब प्रारण भूत जीव सत्त्वो की आगातना की हो
: काल की शातना की हो
सुयस्स श्रीसायरगाए
: श्रुत की आशातना की हो
सुयदेवस्स आसायलाए : श्रुतदेव ( तीर्थंकर या गणधर ) की श्राशातना की हो
: वाचनाचार्य ( शास्त्र पढाने वाले) की
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प्राशातना की हो
वायरगारियre
श्रासावरणाए
ज वाइद्ध, वच्चामेलियं : यदि व्याविद्ध, व्यत्ययाम्रेडित होरगदखर, श्रच्चदखर : हीनाक्षर, प्रतिक्षर पयहोरा, विरायहीरण : पदहीन, विनयहीन जोग हीरण, घोसहीरग सुट्टु ? ( 5 ) दिगं दुट्ठ पडिच्छियं प्रकाले को सभाम्रो
: योगहोन या घोषहीन पढा हो : सुष्ठु ? (न) दिया हो
: दुष्टु लिया हो
अकाल मे स्वाध्याय की हो
काले न को सभाओ : काल मे स्वाध्याय न की हो
प्रसज्झाए सज्झाइय : अस्वाध्याय मे स्वाध्याय की हो सज्झाए न सज्झाइयं
स्वाध्याय मे स्वाध्याय- न की हो
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