Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 02
Author(s): Parasmuni
Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur

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Page 299
________________ तत्त्व-विभाग- पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २७३ दूर किया जा सकता है तथा परिस्थापना भूमि मे यदि जीव हो गये हो, तो परिस्थापना भूमि बदली जा सकती है। प्रतिलेखन न करने पर १. उनमे रहे जीवो की विराधना हो सकती है, २ उन जीवो से आत्म विराधना हो सकती है एव परिस्थापना भूमि की विषमता से तथा काटे आदि से भी आत्म विराधना हो सकती हैं इसलिए तीर्थंकरो ने सायकाल दिन रहते हुए ही दोनो की प्रतिलेखना करने का आदेश दिया है। ४. भाव से-परिस्थापन के लिए जाते समय प्रावस्सिया २ (= आवश्यकी, मैं आवश्यक कार्य से जा रहा हूँ) यो कहकर जावे। परिस्थापन भूमि की शकेन्द्र महाराज की आज्ञा ले। फिर दिन हो, तो परिस्थापन भूमि को देखे और रात्रि हो, तो परिस्थापन भूमि को पूंजे (=प्रमार्जन करे)। फिर चार अंगुल ऊँचे से यतना सहित परिस्थापन करे। परिस्थापन करके 'वोसिरामि वोसिरामि' (=त्यागता हैं) यो कहे। फिर उपाश्य मे प्रवेश करते समय निसीहिया २ (नषेधिकी, मैं आवश्यक कार्य करके आ गया है) यो कहे । अन्त मे परिस्थापना के निमित्त इर्यापथिक का कायोत्सर्ग करे । ॥ इति समिति स्वरूप समाप्त ॥ अथ गुप्ति का स्वरूप गुप्ति : प्राणातिपात आदि पापो से बचने के लिए आत्मा के उत्तम परिणामो से मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति रोकना। _ 'गुप्ति मे अशुभ प्रवृत्ति रोकना मुख्य माना है।' अतएव -गुप्ति की यह परिभाषा की है। अन्यथा मन-वचन-काया को

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