Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 02
Author(s): Parasmuni
Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur

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Page 302
________________ २७४ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ शुभ प्रवृत्ति करना और एकाग्रता, मौन, कायोत्सर्ग आदि के द्वारा 'शुभ-अशुभ' दानो प्रवृत्तियाँ रोकना भी 'गुप्ति हैं। अथ मनोगुप्ति का स्वरूप मनोगुप्ति : प्राणातिपात आदि पापो से बचने के लिए अात्मा के उत्तम परिणामो से मन की अशुभ प्रवृत्तियो को रोकना। मनोगुप्ति के चार भेद-१. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. भाव । १. द्रव्य से-असत्य और मिश्र इन दोनो अशुभ संक्लिष्ट मनोयोगो को रोके और सत्य प्रोर व्यवहार इन दो शुभ विशुद्ध मनोयोगो की प्रवृत्ति करे। २. क्षेत्र से सब क्षत्र मे। अशुभ मनोयोग रोके और शुभ मनोयोग मे प्रवृत्ति करे। ३ काल से-यावज्जीवन तक या जिस समय मनोयोग में प्रवृत्ति करे, उस समय अशुभ मनोयोग रोके और शुभ मनोयोग मे प्रवृत्ति करे। ४. भाव से-१. सरम्भ (सारम्भ), २. समारम्भ और ३. प्रारम्भ वाले मनोयोग को वर्ज (छोड़) कर राग द्वेष रहित तथा उपयोग सहित अनारंभी मनोयोग की प्रवृत्ति करे। १. सरभ (सारंभ): किसी प्राणी को परितापना (पीडा) देने या मारने का अध्यवसाय (सकल्प) करना । चारों मनोयोग की परिभाषा इस पुस्तक के पृष्ठ २८८ पर देखिये ।

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