Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 02
Author(s): Parasmuni
Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur

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Page 308
________________ २७८ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ ४. काया का अनारंभ : किसी प्राणी को परितापना न पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी काया की विशुद्ध (शुभ) प्रवृत्ति करना। पूर्वोक्त आठ प्रवचन माताओ की जो मुनि पूर्णतया सम्यक् पालना करता है, वह ससार से शीघ्र मुक्त हो जाता है। अर्थ, भावार्थ और प्रासंगिक जानकारी सहित ॥ इति पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक समाप्त ॥ 'तीर्थङ्कर नाम गोत्र उपार्जन के २० बोल' अरहंत-सिद्धर-पवयग,-गुरु-थेर-बहुस्सुए तवस्सीसु । वच्छल्लया य तेसि, अभिवख-गारगोवोगे य ॥१॥ दंसरग-विरगए'-प्रावस्सए११ य सीलव्वए निरइयारो। खरण-लव-तव'४-चियाए१५, वेयावच्चे ६ समाहि१७ य ॥२॥ प्रपुव-नारण-गहणे'८, सुयभीत्ती'६पवयणे पभावरण्या२० । एएहि कारणेहि, तित्थयरत्त लहइ जीवो ॥३॥ ज्ञाता धर्मकथा ८ वा अध्ययन । १. अरिहत वच्छल्लया (अरिहन्त वत्सलता) : अरिहन्त भगवान् का (१. हृदय से, श्रद्धा आदि वहुमान २. वचन से) गुणकीर्तन (तया ३ काया से नमस्कार आदि भक्ति) करता हुआ जीव करोडो भवो के सचित कर्म वृन्द (राशि) को क्षय करता है तथा यदि उत्कृष्ट रसायन (भाव) आवे, तो तीर्थकर नाम गोन का उपार्जन करता है।

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