Book Title: Subodh Jain Pathmala Part 02
Author(s): Parasmuni
Publisher: Sthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur

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Page 303
________________ सत्त्व-विभाग-'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २७५ २. समारंभ : किसी प्राणी को परितापना देना। ३. प्रारंभ : किसी प्राणो को मार देना। ४: अनारंभ : किसी भी प्राणी को परितापनों न पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी विशुद्ध शुभ प्रवृत्तिं करना। १ मन का सरंभ : 'मैं इसे परितापना दूं या मारूँ।' ऐसा मानसिक सक्लिष्ट (अशुभ) ध्यान करना। २. मन का समारंभ : किसी प्राणी को मानसिक सक्लिष्ट (अशुभ) ध्यान द्वारा परितापना देना। ३. मन को प्रारंभ : किसी प्राणी को मानसिक सक्लिष्ट (अशुभ) ध्यान द्वारा मार देना । ४. मन का अनारंभ : किसी प्राणी को परितापना न पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी मन की विशुद्ध (शुभ) प्रवृत्ति करना। दूसरी वचन गुप्ति का स्वरूप वचन गुप्ति • प्राणातिपात आदि पापो से बचने के लिए, आत्मी के उत्तम परिणामो से, वचनं की अशुभ प्रवृत्तियां रोकना। वचन गुप्ति के चार भेद-१ द्रव्य २ क्षेत्र ३ काल ४ भाव। १ द्रव्य से-असत्य और मिश्र इन दोनो अशुभ वचन योगों को रोके एवं सत्य और व्यवहार इन दो शुभ वचन योगो की प्रवृत्ति करे। धारो वचन योगो की परिभाषा, इसी पुस्तक के २३० पृष्ठ पर देखिये ।

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