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सुवोध जैन पाठमाला--भाग २
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मनुष्य : के तीन सौ तीन । पन्द्रह कर्म भूमि, तीस अकर्म भूमि और छप्पन अन्तर्वीप, ये एक सौ एक (१५+३०+ ५६=१०१) । एक सौ एक गर्भज मनुष्य के अपर्याप्त और पर्याप्त, ये दो सौ दो हुए (१०१-२-२०२) और एक सौ एक समूच्छिम मनुष्य के अपर्याप्त, ये तीन सौ तीन (२०२+१०१ = ३०३)।
देवताओं : के एक सौ प्रदानवे। दश भवनपति, पन्द्रह परमाधार्मिक, सोलह वान-व्यन्तर, दश त्रिज़म्भक, दश ज्योतिषी, तीन किल्विषी, बारह देवलोक, नव लोकान्तिक, नव अवेयक और पाँच अनुत्तर विमान-ये निन्यानवे, (१०+१+१+१० +१०+३+१२+8+8+५=६९) इनके अपर्याप्त और पर्याप्त-ये सब एक सौ अट्ठानवे (९६+६६-१९८)।
अजीवराशि के ५६० भेद अरूपी अजीव के तीस भेद-धर्मास्तिकाय के तीन भेद १ स्कध, २. स्कध देश, ३. स्कध प्रदेश। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के तीन-तीन भेदये नव तथा दशवाँ काल। -(३+३+१=१०).। ,एव धर्मास्तिकाय के पाँच भेद - १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल, ४ भाव और ५. गुरग। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के पाँच, श्राकाशास्तिकाय के पांच और काल के पाँच-यो बीस भेद और हुए (५४४-२०)। इस प्रकार सब तीस भेद (१०+२०=३०) रूपी अजीव के पांच सौ तीस भेद-वर्ण के पॉच --१. काला, २. नीला, ३ लाल, ४. पीला और ५. सफेद। एक-एक के वीस-बीस भेद, यो वर्ण के सौ भेद हुए (५४२० = १००) गन्ध के दो-१ सुरभिगन्ध और २ दुरभिगन्ध । एक-एक के