Book Title: Sthanang Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 17
________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र प्रस्तावना भारत में लिखने की परम्परा थी । किन्तु जैन आगम लिखे नहीं जाते थे । आत्मार्थी श्रमणों ने देखा - यदि हम लिखेंगे तो हमारा अपरिग्रह महाव्रत पूर्णरूप से सुरक्षित नहीं रह सकेगा, हम पुस्तकों को कहाँ पर रखेंगे, आदि विविध दृष्टियों से चिन्तनकर उसे असंयम का कारण माना। पर जब यह देखा गया कि काल की काली छाया से विक्षुब्ध हो अनेक श्रुतधर श्रमण स्वर्गवासी बन गये, श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न होने लगी, तब मूर्धन्य मनीषियों ने चिन्तन किया। यदि श्रुतसाहित्य नहीं लिखा गया तो एक दिन वह भी आ सकता है कि जब सम्पूर्ण श्रुतसाहित्य नष्ट हो जाये। अतः उन्होंने श्रुत - साहित्य को लिखने का निर्णय लिया। जब श्रुत साहित्य को लिखने का निर्णय लिया गया, तब तक बहुत सारा श्रुत विस्मृत हो चुका था। पहले आचार्यों ने जिस श्रुतलेखन को असंयम का कारण माना था, उसे ही संयम का कारण मानकर पुस्तक को भी संयम का कारण माना । 2 यदि ऐसा नहीं मानते, तो रहा-सहा श्रुत भी नष्ट हो जाता । श्रुत-रक्षा के लिए अनेक अपवाद भी निर्मित किये गये। जैन श्रमणों की संख्या ब्राह्मण-विज्ञ और बौद्ध भिक्षुओं की अपेक्षा कम थी । इस कारण से भी श्रुत - साहित्य की सुरक्षा में बाधा उपस्थित हुई। इस तरह जैन आगम साहित्य के विच्छिन्न होने के अनेक कारण रहे हैं। बौद्ध साहित्य के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट होता है कि तथागत बुद्ध के उपदेश को व्यवस्थित करने के लिए अनेक बार संगीतियाँ हुई। उसी तरह भगवान् महावीर के पावन उपदेशों को पुनः सुव्यवस्थित करने के लिए आगमों की वाचनाएँ हुई। आर्य जम्बू के बाद दस बातों का विच्छेद हो गया था । श्रुत की अविरल धारा आर्य भद्रबाहु तक चलती रही। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। जैन शासन को वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्य दुष्काल के भयंकर वात्याचक्र से जूझना पड़ा था । अनुकूल - भिक्षा के अभाव में अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि कालकवलित हो गये थे। दुष्काल समाप्त होने पर विच्छिन्न श्रुत को संकलित करने के लिए वीर निर्वाण १६० (वि.पू. ३१०) के लगभग श्रमण-संघ पाटलिपुत्र (मगध) में एकत्रित हुआ । आचार्य स्थूलिभद्र इस महासम्मेलन के व्यवस्थापक थे । इस सम्मेलन का सर्वप्रथम उल्लेख "तित्थोगाली ' "4 में प्राप्त होता है। उसके बाद . के बने हुए अनेक ग्रन्थों में भी इस वाचना का उल्लेख है। ' मगध जैन - श्रमणों की प्रचारभूमि थी, किन्तु द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणों को मगध छोड़कर समुद्र किनारे जाना पड़ा । " श्रमण किस समुद्र तट पर पहुंचे इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कितने ही विज्ञों ने दक्षिणी समुद्र तट पर जाने की कल्पना की है। पर मगध के सन्निकट बंगोपसागर (बंगाल की खाड़ी) भी है, जिसके किनारे उड़ीसा अवस्थित है। वह स्थान भी हो सकता • है। दुष्काल के कारण सन्निकट होने से श्रमण संघ का वहां जाना संभव लगता है । पाटलिपुत्र में सभी श्रमणों ने मिलकर एक-दूसरे से पूछकर प्रामाणिक रूप से ग्यारह अंगों का पूर्णतः संकलन उस समय किया। 7 पाटलिपुत्र में जितने भी श्रमण एकत्रित हुए थे, उनमें दृष्टिवाद का परिज्ञान किसी श्रमण को नहीं था । दृष्टिवाद जैन आगमों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग था, जिसका संकलन किये बिना अंगों की वाचना अपूर्ण थी । दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु थे। आवश्यक- चूर्णि के अनुसार वे उस समय नेपाल की पहाड़ियो में महाप्राण ध्यान की साधना 1. (क) दशवैकालिक चूर्णि, पृ. २१ (ख) बृहत्कल्पनिर्युक्ति, १४७ उ. ९३ (ग) विशेषशतक - ४९ 2. कालं पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छित्ति निवित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ ! – दशवैकालिक चूर्णि, पृ. २१ 3. गणपरमोहि - पुलाए, आहारगखवग-उवसमे कप्पे । संजय-तिय केवलि-सिज्झणाण जंबुम्मि वुच्छिन्ना ॥ - विशेषावश्यकभाष्य, २५९३ 4. तित्थोगाली, गाथा ७१४ – श्वेताम्बर जैन संघ, जालोर 5. (क) आवश्यकचूर्णि भाग-२, पृ. १८७ (ख) परिशिष्ट पर्व-सर्ग-९, श्लोक ५५-५९ 6. आवश्यकचूर्णि, भाग दो, पत्र १८७ 7. अह बारस वारिसिओ, जाओ कूरो कयाइ दुक्कालो। सव्वो साहुसमूहो, तओ गओ कत्थई कोई ।।२२।। तदुवरमे सो पुणरवि, पाडिले पुत्ते समागओ विहिया । संघेणं सुयविसया चिंता किं कस्स अत्थिति ॥ २३ ॥ जं जस्स आसि पासे उद्देसज्झयणगाइ तं सव्वं । संघडियं एक्कारसंगाई तेहव ठवियाई ॥ २४ ॥ - उपदेशमाला, विशेषवृत्ति पत्रांक २४१ XV

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