Book Title: Sthanang Sutra Part 02 Author(s): Jayanandvijay Publisher: Guru Ramchandra Prakashan SamitiPage 16
________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र प्रस्तावना ही उत्तर दिया है कि वाचना-भेद होने से संभव है समाचारी में भेद हो। और कथंचित् असाम्भोगिक सम्बन्ध हो। बहुत से आधुनिक चिन्तक भी इस बात को स्वीकार करते हैं। आगमतत्त्ववेत्ता मुनि जम्बूविजयजी ने आवश्यकचूर्णि को आधार बनाकर इस तर्क का खण्डन किया है। उन्होंने तर्क दिया है कि यदि पृथक्-पृथक् वाचनाओं के आधार पर द्वादशांगी पृथक्-पृथक् थी तो श्वेताम्बर और दिगम्बर के प्राचीन ग्रन्थों में इस का उल्लेख होना चाहिए था। पर वह नहीं है। उदाहरण के रूप में एक कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थीयों के एक ही प्रकार के पाठ्यग्रन्थ होते हैं। पढ़ाने की सुविधा की दृष्टि से एक हि विषय पृथक्-पृथक् अध्यापक पढ़ाते हैं। पृथक्-पृथक् अध्यापकों के पढ़ाने से विषय कोई पृथक् नहीं हो जाता। वैसे ही पृथक्-पृथक् गणधरों के पढ़ाने से सूत्ररचना भी पृथक् नहीं होती। आचार्य जिनदास गणि महत्तर ने भी यह स्पष्ट लिखा है कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सभी गणधर एकान्त स्थान में जाकर सूत्र की रचना करते हैं। उन सभी के अक्षर, पद और व्यञ्जन समान होते हैं। इस से भी यह स्पष्ट है कि सभी गणधरों की भाषा सदृश थी। उसमें पृथक्ता नहीं थी। पर जिस प्राकृत भाषा . में सत्र रचे गये थे. वह लोकभाषा थी। इसलिए उसमें एकरूपता निरन्तर सुरक्षित नहीं रह सकती। प्राकृत की प्रकृति के अनुसार शब्दों के रूपों में संस्कृत के समान एकरूपता नहीं है। समवायांग आदि में यह स्पष्ट कहा गया है कि भगवान् महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिया। पर अर्धमागधी भाषा भी उसी रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी। आज जो जैन आगम हमारे सामने हैं, उनकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है। दिगम्बर परम्परा के आगम भी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी प्रधान हैं, आगमों के अनेक पाठान्तर भी प्राप्त होते हैं। जैन श्रमणों की आचारसंहिता प्रारम्भ से ही अत्यन्त कठिन रही है। अपरिग्रह उनका जीवनव्रत है। अपरिग्रह महाव्रत की सुरक्षा के लिए आगमों को लिपिबद्ध करना, उन्होंने उचित नहीं समझा। लिपि का परिज्ञान भगवान् ऋषभदेव के समय से ही चल रहा था। प्रज्ञापना सूत्र में अठारह लिपियों का उल्लेख मिलता है। उसमें "पोत्थार'' शब्द व्यवहृत हुआ है। जिसका अर्थ "लिपिकार" है।' पुस्तक लेखन को आर्य शिल्प कहा है। अर्धमागधी भाषा एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वाले लेखक को भाषाआर्य कहा है। स्थानाङ्ग में गण्डी कच्छवी, मुष्टि, संपुटफलक, सुपाटिका इन पाँच प्रकार की पुस्तकों का उल्लेख है। दशकालिक हारिभद्रीया वृत्ति में प्राचीन आचार्यों के मन्तव्यों का उल्लेख करते हुए इन पुस्तकों का विवरण प्रस्तुत किया है। निशीथचूर्णि में इन का वर्णन है।11 टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताडपत्र, सम्पुट का संचय और कर्म का अर्थ मषि और लेखनी से किया है। जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध-साहित्य में भी लेखनकला का विवरण मिलता है।12 वैदिक वाङ्मय में भी लेखन-कलासम्बधी अनेक उद्धरण हैं। सम्राट सिकन्दर के सेनापति निआस ने भारत-यात्रा के अपने संस्मरणों में लिखा है कि भारतवासी लोग कागज-निर्माण करते थे।13 सारांश यह है-अतीतकाल से ही 1. सूयगडंगसुत्त-प्रस्तावना, पृष्ठ २८-३० 2. जदा य गणहरा सव्वे पव्वजिता ताहे किर एगनिसज्जाए एगारस अंगाणि चोद्दसहिं चोद्दस पुव्वाणि, एवं ता भगवता अत्था कहितो, तोहे भगवंतो एगपासे सुतं करे (रे) ति तं अक्खरेहिं पदेहिं वंजणेहिं समं, पच्छा सामी जस्स जत्तियो गणो तस्स तत्तियं अणुजाणति। आतीय सुहम्मं करेति, तस्स महल्लमाउयं, एत्तो तित्थं होहिति त्ति।" -आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ ३३७ 3. समवायांगसूत्र, पृष्ठ ७ 4. देखिये-पुण्यविजयजी व जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित जैन आगम ग्रन्थमाला के टिप्पण। 5. (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति (ख) कल्पसूत्र १९५ 6. (क) प्रज्ञापनासूत्र, पद १ (ख) त्रिषष्टि १-२-९६३ 7. प्रज्ञापनासूत्र, पद-१ 8. प्रज्ञापनासूत्र, पद-१ 9. (क) स्थानांगसूत्र, स्थान-५ (ख) बृहत्कल्पभाष्य ३/३, ८, २२ (ग) आउटलाइन्स आफ पैलियोग्राफी, जर्नल आफ यूनिवर्सिटी आफ बोम्बे, जिल्द ६, भा. ६, पृ. ८७, एच. आर. कापडिया तथा ओझा, वही पृ. ४-५६ 10. दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति पत्र-२५ 11. निशीथ चूर्णि उ. ६२ 12. राइस डैविड्स : बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ. १०८ 13. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. २ xivPage Navigation
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