Book Title: Sramana 2015 07
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 4
________________ सम्पादकीय आजकल देश में संलेखना पर काफी चर्चायें चल रही हैं। कारण है- राजस्थान उच्च न्यायालय का १० अगस्त २०१५ को दिया गया वह निर्णय जिसमें माननीय उच्च न्यायालय ने जैन धर्म में बहुप्रचलित संलेखना या संथारा की प्रथा को जीने के मूल अधिकार के तहत मानने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, न्यायालय ने संलेखना या संथारा करनेवालों पर आत्महत्या तथा ऐसा करने के लिये प्रेरित करनेवालों पर आत्महत्या के लिये उकसाने के लिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३०६ व ३०९ के तहत केस दर्ज कर कार्यवाही करने का आदेश दिया। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नहीं है। मुख्य न्यायाधीश सुनील अम्बवानी तथा न्यायाधीश वीरेन्द्र सिंह सिराधना की संयुक्त पीठ ने यह निर्णय अधिवक्ता निखिल सोनी की जनहित याचिका निस्तारित करते हुयें दिया । न्यायालय ने संलेखना को आत्महत्या के समान अपराध माना। न्यायाधीशद्वय ने अपने निर्णय में कहा कि संलेखना या संथारा को धार्मिक आस्था बतानेवाले धर्मग्रन्थ, प्रवचन, लेख या जैन मुनियों की मान्यता का दस्तावेज पेश नहीं कर पाये। वे ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं दे सके जिससे स्पष्ट होता हो कि भारतीय संविधान लागू होने से पूर्व संथारा या संलेखना को अपनाया जाता रहा हो। संविधान ने हमें कई स्वतन्त्रता दी है, किन्तु जीने के मूल अधिकार तहत किसी का जीवन लेना शामिल नहीं है और न ही ऐसा अधिकार धार्मिक स्वतन्त्रता के तहत दिया गया है। धार्मिक स्वतन्त्रता के तहत ऐसी कोई प्रथा या बाध्यता नहीं है, जो जान लेने का अधिकार देती हो। इसलिये इसकी मंजूरी नहीं दी जा सकती। राजस्थान उच्च न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ जैन समाज की तीखी प्रतिक्रिया हुई। यहां तक कि अजैन संगठनों ने भी न्यायालय के इस निर्णय को बर्रे के छत्ते में हाथ डालने की संज्ञा दी। इस निर्णय से जैन जन भावना आहत हुई है। संलेखना की अत्यन्त प्राचीन और पवित्र प्रथा जो जैन धर्म में सदियों से चली आ रही है, उसे एक निर्णय के द्वारा आत्महत्या के समकक्ष ला खड़ा करना, एक प्रकार के बौद्धिक दीवालियापन के अलावा कुछ नहीं है। इसप्रकार का निर्णय देने के पहले उस व्यक्ति अथवा संस्था को उस विशेष परम्परा के इतिहास और धर्म-दर्शन का पूरा ज्ञान अपेक्षित है । माननीय न्यायालय ने यदि जैन साहित्य, इतिहास एवं परम्परा का अध्ययन किया होता तो शायद इसप्रकार का फैसला नहीं आया होता। किसी भी रूप में संलेखना को आत्महत्या से समीकृत नहीं किया जा सकता। यह ठीक है कि संलेखना और आत्महत्या दोनों में स्वेच्छापूर्वक शरीरर-त्याग किया जाता है और इसीलिये सामान्यतया यह समझ लिया जाता है कि दोनों एक हैं, किन्तु जैन दर्शन में शरीर त्याग का समर्थन नैतिक दृष्टि से उचित माना गया है। संलेखना की भावना एक अत्यन्त उदात्त भावना है। जबकि आत्महत्या की भावना एक अत्यन्त निकृष्ट भावना है।

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