Book Title: Sramana 2012 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ 4 : श्रमण, वर्ष 63, अंक 2 / अप्रैल-जून 2012 उसभ-अजित-सम्भव-अभिणंदण-सुमइ- पउमप्पह-सुपास-चंदप्पह-सुविधि -सीअल-सिज्जंस-वासुपूज्य-विमल-अणंत-धम्म-संति-कुंथ-अर-मल्लीमुणिसुव्वय-नमि-नेमी-पास-वद्धमाणा।" अगार जाव पव्वतिते अगारवासमझे वसित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए।' अक्खरा जाव चरणकरणपरूवणया आघविज्जति।अक्खरा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविजति परूविज्जति निर्देसिज्जंति से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति। 2. समानार्थक शब्दों का प्रयोगजैन परम्परा के अर्थ-प्रधान होने का परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग हस्तप्रतों में एक प्रसंग में समान अर्थ के वाचक विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाना पाठ-भेद का कारण बना है, जैसे - -एगेपावे के स्थान पर एगे अपुण्णे (पाप अर्थ में)" -चक्कवाल (वृत्ताकार) के स्थान पर आयाम(विस्तार अर्थ) -रोस (क्रोध) के स्थान पर दोस (विकार सामान्य अर्थ)" -अनुभाग और अनुभाव (कषाय- क्रोध-मान आदि मानसिकविकारों की तीव्रता के वाचक) दोनों शब्दों का प्रयोग'2 -ओमोदरी और ऊणोदरी (एक बाह्य तप जिसमें अल्प मात्रा में आहार ग्रहण किया जाता है) इन दोनों शब्दों का प्रयोग ओमोदरिया ऊणोदरिया -ध्रुव के लिए नित्य (णिच्च) धुव राहू - णिच्च राहू 4 -रात्रि के लिए रजनी राती- रयणी15 -अध:स्थित के लिए अवरिल्लाओ- हेट्ठिल्ले, हिट्ठिमिल्ले" -मलिन- मइल 3. पण्णत्ते का अतिरिक्त प्रयोगकुछ पाण्डुलिपियों में कई स्थलों पर विवरण के पश्चात् 'प्ररूपित किया गया है' इस अर्थ में 'पण्णत्ते' शब्द का प्रयोग किया गया है और कुछ में 'पण्णत्ते' शब्द का अभाव पाया जाना भी पाठ-भेद का कारण बना है, जैसे उड्ढउच्चत्तेणं पण्णत्ते में पण्णत्ते का अभाव, आयामविक्खम्भेणं पण्णत्ते ।” अबाहाए मंदरे पव्वते पण्णत्ते अट्ठारस पदसहस्साइं पदग्गेणं पण्णत्ते',

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