Book Title: Sramana 2012 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 26
________________ जैन अंग साहित्य में प्रतिबिम्बित...... : 19 की प्रथा को धार्मिक संस्कार में परिणत किया गया है। सर्वप्रथम माता-पिता स्नान करके विपुल. वस्त्र, गंध, माला और अलंकार से भिन्न-भिन्न ज्ञातिजनों, स्वजन परिजन को सम्मानित करने के पश्चात् शिशु का नामकरण कराते थे। द्रौपदी का नाम उसके पिता द्रुपद ने अपने नाम के आधार पर द्रौपदी रखा था।" व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार राजा बल ने इस संस्कार के पश्चात् अपने पुत्र का नाम महाबल रखा था। यह संस्कार जन्म के बारहवें दिन आयोजित किया जाता था। (9) अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बालक जन्म के छठे एवं बालिका जन्म के पाँचवें माह में मनाया जाता था। इसमें शिशु को प्रथम बार आहार ग्रहण कराया जाता था। राजप्रश्नीयसूत्र में इसके विधि-विधानों का संक्षिप्त वृत्तान्त मिलता है। (10) कर्णवेध संस्कार- शिशु जन्म के तीसरे, पाँचवें व सातवें माह में विधि -विधान से कर्ण आभूषण पहनाया जाता था। यह संस्कार शिशु को रोग व्याधि से बचाने हेतु किया जाता था। कुछ विशेष नक्षत्रों यथा- उत्तराषाढ़, उत्तराफाल्गुणी, हस्त, रोहिणी, रेवती, मृगाशीर्ष व पुष्य नक्षत्र में आयोजित किया जाता था। तत्कालीन बौद्ध संस्कृति में यह संस्कार कर्णछेदन नाम से प्रचलित था।2 (11) चूड़ा संस्कार- चूड़ा शब्द से तात्पर्य बालक के बालों के गुच्छों से है जो मुण्डित सिर पर रखा जाता था। इस संस्कार के निमित्त बालक जन्म के प्रथम बार शिखा (बालगुच्छ) रखकर शेष सिर के बालों का मुण्डन किया जाता था। दिगम्बर परम्परा में इस संस्कार को केशवाय अथवा चौलक्रिया कहा गया है। बौद्ध साहित्य के अनुसार यह संस्कार प्रव्रज्या के समय सम्पन्न होता था।3।। (12) उपनयन संस्कार- उपनयन का शाब्दिक अर्थ समीप ले जाने से है। इस संस्कार में बालक को आचार्य के पास ले जाकर विधि-विधान से दीक्षा ग्रहण करायी जाती थी। इस संस्कार के पश्चात् बालक विद्याध्ययन के योग्य माना जाता था। परवर्ती साहित्य के अनुसार यज्ञोपवीत को धारण किये बिना बालक को श्रावकधर्म के पालन का मुनिदान का अधिकारी नहीं माना जाता था। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार राजा बल ने अपने पुत्र का उपनयन संस्कार सम्पन्न कराया था। (13) विद्यारम्भ संस्कार- इस संस्कार में बालक को प्रथम बार अक्षरज्ञान कराया जाता था। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसे 'विद्यारम्भ' व दिगम्बर सम्प्रदाय में 'लिपिसंख्या क्रिया' कहा गया है। अंग साहित्य ज्ञाताधर्मकथांग में इसका केवल

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