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जैन अंग साहित्य में प्रतिबिम्बित...... : 21 करना था।" (3) प्रव्रज्या विधि- प्रव्रज्या शब्द का अर्थ यहाँ संन्यास ग्रहण करने से है। इसके माध्यम से साधक को यावत्-जीवन सामायिक व्रत के पालन की प्रतिज्ञा करायी जाती थी। आगम काल में यह संस्कार निर्ग्रन्थ मुनि द्वारा कराया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य साधक को सांसारिक बुराइयों से दूर रखना था। वर्तमान समय में यह संस्कार निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा ही कराया जाता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार श्रेष्ठि कार्तिक ने प्रव्रज्या संस्कार का पालन किया था। ज्ञाताधर्मकथानुसार पाँचों पाण्डवों ने धर्मघोष स्थविर से प्रव्रज्या ग्रहण किया
था।
(4) उपस्थापन विधि- उपस्थापन से तात्पर्य आत्मा के निकट उपस्थित रहने या आत्मा में रमण करने से है। इस संस्कार का पूर्व नाम छेदोपस्थापनीय चारित्र है। इसमें शिष्य को नये वस्त्राभूषण पहनाकर गुरु द्वारा तीन बार पंचपरमेष्ठीमंत्र का उच्चारण कराकर पंचमहाव्रतों व रात्रिभोजन-त्याग का आरोपण कराया जाता था। इस संस्कार के पश्चात् ही मुनि संघ का स्थायी सदस्य बनता था। (5) योगोद्वहन संस्कार- इस संस्कार के माध्यम से मुनि मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों का निग्रह करके आगमों के अध्ययन योग्य बनता है। यह संस्कार विशिष्ट गुणों के धारक उपाध्याय आदि द्वारा कराया जाता है। ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग. अंतकृद्दशांग. प्रश्नव्याकरणसूत्र में इसकी विधियों का विवेचन मिलता है। (6) वाचनाग्रहण विधि- वाचनाग्रहण से तात्पर्य विधिपूर्वक सिद्धान्त ग्रन्थों के सूत्रार्थ को ग्रहण करने से है। यह संस्कार निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा कराया जाता था। ध्यातव्य है कि वैदिक संस्कृति व दिगम्बर सम्प्रदाय में इस संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। (7) वाचनानुज्ञा विधि- वाचनानुज्ञा शब्द दो शब्द वाचना+अनुज्ञा से बना हैयहाँ वाचना शब्द से तात्पर्य अध्ययन करने व कराने से है। इस संस्कार का उद्देश्य योग्य मुनि को आचार्य पद प्रदान किये बिना शिष्यों को अध्ययन कराने की अनुमति प्रदान करना था। इसमें वाचना देने वाले (गुरु) और वाचना लेने वाले (शिष्य) दोनों ही लाभान्वित होते थे। मोक्ष प्राप्त करने वाले साधु-साध्वियों हेतु यह संस्कार अत्यन्त आवश्यक था। यह संस्कार भी आचार्य द्वारा कराया जाता था। (8) उपाध्याय पद-प्रदान विधि- यहाँ उप से तात्पर्य समीप तथा अध्याय से तात्पर्य अध्ययन करने से है अर्थात् जिसके समीप बैठकर अध्ययन किया जा